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________________ आवश्यक नियुक्ति ३४९ करने लगे और सुबाहु अन्यान्य मुनियों को विश्राम देते थे। भगवान वज्रसेन ने उन दोनों का उपबृंहण करते हुए कहा- 'अहो तुम दोनों ने मनुष्य जन्म का सुफल पा लिया। एक मुनियों की वैयावृत्य करता है और दूसरा परिश्रान्त मुनियों को विश्राम देता है।' इस प्रकार भगवान् उनकी प्रशंसा करते। उनकी प्रशंसा सुनकर शेष दो भाई मुनियों में अप्रीति उत्पन्न होती। वे सोचते-हम भी तो स्वाध्यायरत रहते हैं, परंतु हमारी प्रशंसा नहीं होती। जो काम करता है, उसकी प्रशंसा होती है। यह सारा लोक-व्यवहार है। मुनि वज्रनाभ ने उस भव में विशुद्ध परिणामों से तीर्थंकरनामगोत्र का बंध किया। मुनि बाहु ने वैयावृत्य करने के फलस्वरूप चक्रवर्ती के भोगों का अर्जन किया। सुबाहु ने सेवा-कार्य से बाहुबल की प्राप्ति की। दूसरे दो भाइयों ने मायावी आचरण के कारण स्त्रीनामगोत्र कर्म का बंध किया। पांचों अपना आयुष्य पूर्ण कर सर्वार्थसिद्ध विमान में तेतीस सागरोपम की स्थिति वाले देव बने। बाहु और पीठ भरत और ब्राह्मो के रूप में तथा सुबाहु और महापीठ बाहुबलि और सुंदरी के रूप में उत्पन्न हुए। ३१. ऋषभ का जन्म वहां से च्युत होकर वज्रनाभ का जीव इस अवसर्पिणी काल के सुषम-सुषमा और सुषमा अर के व्यतीत हो जाने पर तथा सुषम-दुःषमा काल का बहुल भाग व्यतिक्रान्त होने पर उसके चौरासी लाख पूर्व तथा ८९ पक्ष शेष रहने पर आषाढ़ मास के कृष्णपक्ष की चतुर्थी के दिन उत्तराषाढ़ा योगयुक्त चन्द्रमा में, इक्ष्वाकु वंश के नाभि कुलकर की पत्नी मरुदेवा के गर्भ में उत्पन्न हुआ। मरुदेवा माता ऋषभ, गज आदि चौदह स्वप्न देखकर प्रतिबुद्ध हुई। उसने नाभि कुलकर से चौदह स्वप्नों की बात कही। उन्होंने कहा'देवी! तुम्हारा पुत्र महान् कुलकर होगा।' उस समय इन्द्र का आसन चलित हुआ और वह शीघ्र ही वहां आ पहुंचा। उसने आते ही कहा- 'देवानुप्रिये! तुम्हारा पुत्र समस्त विश्व के लिए मंगलकारी होगा। वह प्रथम नृपति और प्रथम धर्मचक्रवर्ती होगा। यह सुनकर मरुदेवा हृष्ट-तुष्ट हुई। वह आनन्दपूर्वक अपना गर्भ वहन करने लगी। नौ मास और साढ़े आठ (नौ) रात-दिन बीतने पर चैत्रकृष्णा अष्टमी उत्तराषाढ़ा नक्षत्र में आधी रात के समय उसने एक अत्यंत स्वस्थ पुत्र का प्रसव किया। तीर्थंकर जब उत्पन्न होते हैं, तब संपूर्ण लोक में उद्योत होता है। तीर्थंकरों की माताएं प्रच्छन्नगर्भ वाली होती हैं। उनके जरा, रुधिर, कल्मष आदि नहीं होते। त्रिलोकीनाथ के जन्म लेते ही अधोलोकवास्तव्य आठ दिक्कुमारियों के आसन चलित हुए। उन्होंने अपने अवधिज्ञान से भगवान् ऋषभ के जन्म को जाना। दिव्ययान-विमान और समृद्धि के साथ शीघ्रता से आकर तीर्थंकर और तीर्थंकर-जननी की अभिवंदना करती हुई वे बोलीं- 'हे जनयित्री! तुमको नमस्कार है। तुम जगत् प्रकाशी त्रिभुवन-दीपक की मां हो। देवी! हम अधोलोकवासी आठ दिक्कुमारियां हैं। हमारे नाम इस प्रकार हैं-भोगकरी, भोगवती, सुभोगा, भोगमालिनी, सुवत्सा, वत्समित्रा, पुष्पमाला, १. आवनि १३६/१-८, आवचू. १ पृ. १३१-१३४, हाटी. १ पृ. ७७-८०, मटी. प. १५८-१६० २. कई आचार्य मानते हैं कि बत्तीस इन्द्रों नेआकर यह स्तुति की। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001927
Book TitleAgam 40 Mool 01 Aavashyak Sutra Part 01
Original Sutra AuthorBhadrabahuswami
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2001
Total Pages592
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, & agam_aavashyak
File Size11 MB
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