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________________ आवश्यक नियुक्ति ३५३ ज्ञान था। लोगों ने उनसे पूछा - 'नीतियों का अतिक्रमण हो रहा है अतः अब क्या करना चाहिए ?' तब भगवान् ऋषभ ने कहा—' अब राजा की आवश्यकता है।' लोगों ने पूछा- 'राजा कैसा होता है ?' तब ऋषभ ने कहा- 'जो राजा होता है, उसके पास कुमार, अमात्य, दंडपालक और आरक्षक होते हैं इसलिए उनकी उग्र दंडनीति होती है। उसका लोग अतिक्रमण नहीं कर सकते।' लोगों ने फिर प्रश्न किया- 'राजा कैसे बनता है ? ' ऋषभ ने उत्तर दिया- 'उसका राज्याभिषेक किया जाता है।' लोगों ने कहा- 'आप हमारे राजा बन जाएं।' ऋषभ ने कहा- 'आप लोग नाभि से राजा की याचना करो।' लोग नाभि के पास जाकर राजा की मांग करने लगे। नाभि ने कहा- 'मैं अब अवस्था प्राप्त हो गया हूं तुम लोग ऋषभ को राजा के रूप में स्थापित करो।' लोग पद्मसरोवर के पास गए। पद्मिनी पत्रों से वे जब पानी ला रहे थे तब इन्द्र का आसन चलित हुआ । इन्द्र लोकपाल के साथ अपनी समस्त ऋद्धि सहित वहां उपस्थित हुआ । उसने ऋषभ का राज्याभिषेक किया। राजा के योग्य जितने अलंकार होते हैं, वह सब लेकर आया। उसने बड़े उत्सव के साथ ऋषभ का राज्याभिषेक किया। लोगों ने आकर ऋषभ को अभिषिक्त और सब अलंकारों से विभूषित देखा। वे उन्हें देखकर अत्यन्त प्रसन्न हुए। उन्होंने सोचा- 'अलंकृत और विभूषित ऋषभ के ऊपर पानी कैसे डालें ?' तब उन्होंने नलिनीपत्रों में लाये हुए पानी से ऋषभ के पैरों का अभिषेक कर दिया। यह देखकर इन्द्र ने सोचा यहां के लोग बहुत विनीत हैं अतः इस नगरी का नाम भी विनीता हो । तब देवराज शक्र ने वैश्रमण देव को आज्ञा दी - 'देवानुप्रिय ! बारह योजन दीर्घ, नव योजन चौड़ी नगरी का निर्माण करो।' आज्ञा के साथ ही वैश्रमण देव ने दिव्य वन और प्राकारों से शोभित विनीता नगरी का निर्माण कर दिया। राज्याभिषेक के बाद ऋषभ ने चार प्रकार का राज्यसंग्रह किया - उग्र, भोग, राजन्य और क्षत्रिय । जिनकी दंडनीति उग्र थी, वे उग्र कहलाए। वे आरक्षिक पुरुष बने । ऋषभ के पितृस्थानीय भोग, समवयस्क राजन्य तथा अवशेष क्षत्रिय कहलाए।" ३५. ऋषभ द्वारा प्रशिक्षण पहले यौगलिक कंद आदि का आहार करते । फिर सतरह प्रकार के धान्य का आहार करने लगे । कालान्तर में वह धान्य उनके लिए अपाच्य गया तब वे ऋषभ के पास आए। ऋषभ ने कहा - ' - "तुम इनको हाथ से घर्षण करके छिलका उतारकर खाओ।' काल-दोष से वह भी सुपाच्य नहीं रहा । ऋषभ ने चावल आदि धान्यों को दोनों में भिगोकर खाने का निर्देश दिया। जब भिगोया हुआ धान्य हाथ में रखकर खाने पर दुष्पाच्य हो गया तो ऋषभ ने कांख की उष्मा में रखकर खाने की बात कही । एकान्त स्निग्ध और एकान्त रुक्ष काल में अग्नि की उत्पत्ति नहीं होती। काल-स्वभाव से वृक्षों के संघर्षण से एक दिन अग्नि उत्पन्न हो गयी । अग्नि फैलने लगी और सूखे पत्ते, कचरे आदि को जलाने लगी। वे मनुष्य अग्नि को अद्भुत रत्न समझकर उसे लेने के लिए दौड़े। जब उन्होंने उसे लेने के लिए हाथ आगे बढ़ाया तो वे जलने लगे अतः वे वहां से दूर चले गए। भयभीत १. आवनि. १३७/११-१५, आवचू. १ पृ. १५३, १५४, हाटी. १ पृ. ८५, मटी. प. १९४, १९५ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001927
Book TitleAgam 40 Mool 01 Aavashyak Sutra Part 01
Original Sutra AuthorBhadrabahuswami
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2001
Total Pages592
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, & agam_aavashyak
File Size11 MB
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