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________________ ३४६ २९. दो वणिक् मित्र (विमलवाहन ) अपरविदेह में दो वणिक् मित्र रहते थे। एक मायावी था और दूसरा ऋजु । वे साथ-साथ व्यापार करते थे। जो मायावी था, वह ऋजुक से बहुत सारी बातें छुपा लेता था । ऋजुक कुछ भी गुप्त न रखता हुआ सम्यग् सात्म्य से व्यवहार करता था। दोनों दानरुचि थे। ऋजुक मरकर दक्षिणार्ध भरत में यौगलिक नर और मायावी मरकर उसी प्रदेश में हस्तिरत्न के रूप में उत्पन्न हुआ। वह श्वेत वर्ण और चार दांतों से युक्त था। प्रतिपूर्ण हुए। एक दिन हाथी घूम रहा था। उसने यौगलिक नर को देखा। देखते ही उसके मन में प्रीति उत्पन्न हुई। तब उसके आभियोगजनित कर्म उदय में आया। उसने यौगलिक नर को उठाकर अपनी पीठ पर बिठा लिया। हाथी पर चढ़े मनुष्य को देखकर अन्य सभी यौगलिकों ने सोचा, 'यह कोई विशिष्ट पुरुष है। इसका यह वाहन भी विमल है।' उन्होंने पुरुष का नाम 'विमलवाहन' कर दिया। दोनों - हाथी और पुरुष को जातिस्मृति हुई। दोनों ने एक-दूसरे को पहचान लिया । उस समय कालदोष के कारण कल्पवृक्षों की हानि होने लगी। उनकी शक्ति कम हो गई । मत्तांग, भृंगांग, त्रुटितांग, चित्रांग, चित्ररस, गृहाकार और अनग्न आदि कल्पवृक्षों की परिहानि होने पर यौगलिकों में कषाय उत्पन्न होने लगा । वे कहने लगे- 'यह कल्पवृक्ष मेरा है, दूसरा कोई यहां न आए।' जब कोई यौगलिक ममकार करके कल्पवृक्षों पर अधिकार जताता तब दूसरे यौगलिकों में क्रोध आदि कषाय उत्पन्न होते और उनको ग्रहण करने में कलह होता । यौगलिकों ने सोचा- 'हम किसी अधिष्ठाता को स्थापित करें, जो सम्यग् व्यवस्था कर सके। विमलवाहन हम सबमें श्रेष्ठ है, यह सोचकर उन्होंने विमलवाहन को अपने नेता के रूप में प्रतिष्ठापित कर दिया। उसने कल्पवृक्षों के विभाग कर सबको दे दिए और कहा - 'जो कोई इस मर्यादा का उल्लंघन करे, वह मुझे बताया जाए। मैं उसको दंडित करूंगा।' विमलवाहन को वणिक् काल से जातिस्मृति थी। जो कोई अपराध करता, उसको वे अपराध बताते और फिर वे दंड की व्यवस्था करते थे। उस समय का दंड था - हाकार - हाय! तुमने बुरा किया। इस वचनदंड से वह यौगलिक सोचता - ऐसी विडंबना से यही उचित था कि मेरा सर्वस्व छीन लिया जाता, मुझे मार दिया जाता अथवा मेरा शिरच्छेद कर दिया जाता। यह हाकार दंड लंबे समय तक चला। उसकी भार्या का नाम चन्द्रयशा था। उसके साथ भोग भोगने से उसके एक मिथुन उत्पन्न हुआ । उसके भी एक युगल हुआ। इस प्रकार एक ही वंश में सात कुलकर हुए।' परि. ३ : कथाएं ३०. धन सार्थवाह (ऋषभ का पूर्वभव) अपरविदेह जनपद में धन नामक सार्थवाह रहता था। वह क्षितिप्रतिष्ठित नगर से बसन्तपुर नगर की ओर व्यापारार्थ जाना चाहता था । उसने नगर में यह घोषणा करवाई- 'जो कोई मेरे साथ चलेगा, मैं उसका योगक्षेम वहन करूंगा अर्थात् उसके खान-पान, वस्त्र, पात्र, औषध - भेषज तथा अन्य सभी आवश्यक वस्तुओं की पूर्ति करूंगा।' यह घोषणा सुनकर अनेक तटिक, कार्पटिक आदि उसके साथ जाने के लिए तत्पर हुए। साधुओं का एक गच्छ भी उस सार्थवाह के साथ प्रस्थित हुआ। वह ग्रीष्म ऋतु का चरमकाल १. आवनि १३५/१, २, आवचू. १ पृ. १२८, १२९, हाटी. १ पृ. ७४, मटी. प. १५४ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001927
Book TitleAgam 40 Mool 01 Aavashyak Sutra Part 01
Original Sutra AuthorBhadrabahuswami
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2001
Total Pages592
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, & agam_aavashyak
File Size11 MB
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