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________________ आवश्यक नियुक्ति ३४५ २७. (अ) आभीर दंपति एक आभीर दंपति शकट में घी के घड़े लेकर नगर में बेचने गया। बिक्री प्रारंभ हुई। आभीर गाड़ी के ऊपर और आभीरी गाड़ी के नीचे खड़ी थी। आभीर घी के घड़े उठाकर आभीरी को देता और वह उसे जमीन पर रख देती। देते या लेते समय ध्यान न रहने से एक घड़ा हाथ से छूटा और वह फूट गया। आभीरी बोली- 'अरे ग्रामीण ! यह तूने क्या किया'? आभीर बोला- 'तुम उन्मत्त हो। देखती कहीं हो और ग्रहण कहीं करती हो।' तुम्हारे प्रमाद से ही यह घड़ा छूटा है। इस प्रकार वे दोनों लड़ने लगे और एक दूसरे को खींचने-पीटने लगे। अन्य घड़े भी नीचे गिर कर फूट गए। वे रात्रि में अपने गांव की ओर प्रस्थित हुए। रास्ते में उनके बैलों का हरण कर चोर ले गए। चोरों ने उनके रुपये भी लूट लिए। (ब) आभीर दंपति एक आभीर दंपति शकट में घी के घड़े लेकर नगर में बेचने गया। बिक्री प्रारंभ हुई : आभीर गाड़ी के ऊपर और आभीरी गाड़ी के नीचे खड़ी थी। आभीर घी के घड़े उठाकर आभीरी को देता और वह उसे जमीन पर रख देती । देते या लेते समय ध्यान न रहने से एक घड़ा हाथ से छूटा और वह फूट गया। आभीर शकट से तत्काल नीचे उतरा। दोनों ने जल्दी-जल्दी भूमि पर गिरे घी को कर्परों से ग्रहण कर लिया। प्रायः घी एकत्रित हो गया। कुछ ही नष्ट हुआ। आभीर ने कहा- 'मैंने घड़े को अच्छी तरह से नहीं पकड़ाया इसलिए वह नीचे गिर गया।' आभीरी बोली- 'नहीं, नहीं, मैंने उसे अच्छे ढंग से नहीं पकड़ा इसलिए वह हाथ से फिसलकर नीचे गिर गया।'२ २८. ग्रामचिन्तक (महावीर को सम्यक्त्व-लाभ) अपरविदेह के एक गांव में एक ग्रामचिन्तक रहता था। वह राजाज्ञा को प्राप्त कर अनेक शकटों को लेकर लकड़ी लाने के लिए एक महान् अटवी में गया। इधर एक सार्थ (कारवां) कहीं जा रहा था। उसके साथ अनेक साधु भी यात्रा कर रहे थे। सार्थ के एक स्थान पर ठहरने पर साधु भिक्षाचर्या के लिए निकले। इतने में ही वह सार्थ वहां से अन्यत्र चला गया। साधु पीछे रह गए। वे सार्थ के साथ होने के लिए पीछे से तीव्र गति से चले। मार्ग न जानने के कारण वे भटक गए। वे दिग्मूढ होकर चलने लगे। उस अटवी मार्ग से वे मध्याह्न में पहुंचे। भूख और प्यास से व्याकुल होकर वे वहां पहुंच गए, जहां शकटों का समूह था। ग्रामचिन्तक ने उन्हें देखा और पूर्ण संवेग से मन ही मन बोला-'अहो! ये साधु मार्ग से अनजान हैं, तपस्वी हैं, इस अटवी में भटक गए हैं।' उसने अनुकंपावश मुनियों को अशन-पान देकर कहा-'भगवन् ! आप मेरे साथ चलें। मैं आपको सही मार्ग बता देता हूं।' वे साधु उसके पीछे-पीछे चलने लगे। साधुओं में एक साधु धर्मकथा कहने की लब्धि से संपन्न था। उसने धर्मकथा कहनी प्रारम्भ की। धर्मकथा की समाप्ति पर ग्रामचिन्तक को सम्यक्त्व की प्राप्ति हो गयी। मुनि को सही मार्ग बताकर वह पुनः शकटों के पास आ गया। वह अविरत सम्यग्दृष्टि पथदर्शक दिवंगत होकर सौधर्मकल्प में पल्योपम स्थिति वाला देव बना। १, २. आवनि १२४, आवचू. १ पृ. १२४, हाटी. १ पृ. ६९, मटी. प. १४५ । ३. आवनि १३१, आवचू. १ पृ. १२८, हाटी. १ पृ. ७२, ७३, मटी. प. १५२। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001927
Book TitleAgam 40 Mool 01 Aavashyak Sutra Part 01
Original Sutra AuthorBhadrabahuswami
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2001
Total Pages592
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, & agam_aavashyak
File Size11 MB
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