SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 405
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३४४ परि. ३: कथाएं न्यायकर्ताओं ने जीर्णसेठ को दंडित किया। एक प्रकार से उसकी जीते जी मृत्यु हो गई। श्रावक और बधिरगोध' के लिए देखें श्रावकभार्या (कथा सं. १४) और बधिरउल्लाप (कथा सं. १२) २४. टंकणक उत्तरापथ में टंकण नामक म्लेच्छ रहते थे। वे स्वर्ण का विनिमय कर दक्षिणापथ के भांडों--- वस्तुओं को खरीदते थे। वे एक-दूसरे की भाषा नहीं जानते थे। वे एक ओर स्वर्ण का ढेर रख देते और उस पर हाथ रख देते। जब तक विनिमय की इच्छा पूरी नहीं होती, तब तक हाथ रखे रहते । इच्छा पूरी होने पर हाथ उठा लेते। विनिमय हो जाता। २५. शैलघन मुद्गशैल और जम्बूद्वीपप्रमाण पुष्कलसंवर्तक नामक महामेघ में नारदस्थानीय किसी व्यक्ति ने परस्पर कलह पैदा कर दिया। वह मुद्गशैल से बोला—'तुम्हारा नाम लेते ही पुष्कलसंवर्तक मेघ कहता है कि मैं एक ही धारा में उसे आर्द्र बना सकता हूं।' यह सुनकर मुद्गशैल क्रोधवश बोला- 'यदि वह मेरा तिलतुषमात्र अंश भी आई कर देगा तो मैं अपना नाम बदला लूंगा।' पुष्कलसंवर्तक मेघ के पास जाकर उसने मुद्गशैल की बात कही। वह कुपित होकर युगप्रमाण धाराओं के साथ पूर्ण उत्साह से बरसने लगा। सात दिन-रात बरसने के पश्चात् उसने सोचा कि अब मुद्गशैल पिघल गया होगा। पानी के निकल जाने पर मुद्गशैल चमकता हुआ उज्ज्वलतर हो गया। तिलतुषमात्र भी न खंडित हुआ और न ही आर्द्र हुआ। पुष्कलसंवर्तक मेघ को सामने देखकर वह बोला-'नमस्कार!' मेघ लज्जित होकर चला गया। २६. गाय एक धार्मिक व्यक्ति ने चतुर्वेदी चार ब्राह्मणों को एक गाय दान में दी। उन्होंने परस्पर यह व्यवस्था की कि चारों बारी-बारी से गाय को दुहेंगे और उसकी रक्षा करेंगे। सबने यह व्यवस्था स्वीकार कर ली। पहले वाले ब्राह्मण ने सोचा- 'मुझे आज ही दुहना है, कल दूसरा दुहेगा। मेरा इस गाय को चारा-पानी देने से क्या प्रयोजन?' उसने गाय को चारा-पानी नहीं दिया। शेष तीनों ने भी ऐसे ही सोचा। चारा-पानी न मिलने से गाय मर गई। ब्राह्मणों की निन्दा हुई। उसके कारण दान का व्यवच्छेद हो गया। ___अन्य चार ब्राह्मणों ने भी दान में गाय मिलने पर सोचा-चारा डालने से गाय की पुष्टि होगी, सबको दूध मिलेगा। सबका एक दूसरे पर अनुग्रह रहेगा। गाय का पोषण करने से उन्हें गाय का दूध मिला और गांव में अपकीर्ति भी नहीं हुई। भेरी की कथा हेतु देखें चंदन कंथा (कथा सं. २२) १. २.३. आवनि. १२१, आवचू. १ पृ. ११९, हाटी. १ पृ. ६६, मटी. प. १४०। आवनि. १२१ । आवनि. १२१, आवचू. १ पृ. १२०, हाटी. १ पृ. ६६, मटी. प. १४१ । आवनि. १२४, आवचू. १ पृ. १२१, हाटी. १ पृ. ६७, मटी. प. १४२ । आवनि. १२४, आवचू. १ पृ. १२३, १२४, हाटी. १ पृ. ६९, मटी. प. १४४, १४५ । आवनि. १२४। ६. ७. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001927
Book TitleAgam 40 Mool 01 Aavashyak Sutra Part 01
Original Sutra AuthorBhadrabahuswami
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2001
Total Pages592
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, & agam_aavashyak
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy