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________________ आवश्यक नियुक्ति ३४३ वासुदेव ने कहा- 'यदि वरदान देना ही चाहते हैं तो मुझे अशिवोपशमनी भेरी दें।' देवता ने वासुदेव को वह भेरी दे दी। वह अशिवोपशमनी भेरी छह-छह माह में एक बार बजाई जाती थी। उत्पन्न रोग और व्याधियां उससे शान्त हो जाती और जो उसके शब्द सुन लेता उसके छह मास तक नए रोग उत्पन्न नहीं होते। एक बार एक वणिक् भेरीपालक के पास आया। वह दाहज्वर से अत्यंत पीड़ित था। वैद्य ने उसे गोशीर्ष चंदन लगाने को कहा। उसने भेरीपालक से कहा- 'तुम लाख मुद्राएं लो और मुझे भेरी का एक टुकड़ा दो।' भेरीपालक ने लोभ में आकर भेरी का एक टुकड़ा उसे दे दिया और भेरी को चंदन का दूसरा टुकड़ा लगा दिया। उसके बाद वह जो कोई मांगता उसे भेरी के टुकड़े दे देता। अब वह भेरी चंदन की थेगली लगी भेरी बन गई। एक बार द्वारिका में अशिव-महामारी का प्रकोप हुआ। वासुदेव ने उस भेरी को बजाया। उसकी ध्वनि सभा तक भी नहीं पहुंच सकी। वासुदेव बोले-भेरी को दिखाओ। भेरी को थिग्गलमयी देखकर वासुदेव ने भेरीपालक का वध करवा दिया। तेले की तपस्या कर वासुदेव ने देव की आराधना की और दूसरी भेरी प्राप्त की। दूसरे भेरीपालक की नियुक्ति हुई। वह अपनी आत्मा की भांति भेरी की रक्षा करता था। अपनी कार्यनिष्ठा से वह पूजित हुआ। २३. चेटी-सखी बसन्तपुर नगर के जीर्णश्रेष्ठी और नवक सेठ की दोनों पुत्रियां आपस में सखियां थीं। उनमें परस्पर प्रीति थी फिर भी जीर्णसेठ की पुत्री के मन में द्वेष था क्योंकि वह सोचती थी कि यह नवक सेठ की पुत्री उससे अधिक सुन्दर है। एक बार वे दोनों कहीं स्नान करने गईं। नवक सेठ की पुत्री तिलक आदि चौदह आभूषणों से अलंकृत थी। वह अपने सभी आभूषणों को तालाब के तट पर रखकर पानी में उतरी। जीर्णसेठ की पुत्री उन आभूषणों को लेकर दौड़ गई। नवक सेठ की पुत्री ने सोचा कि यह ऐसे ही क्रीड़ा कर रही है। जीर्णसेठ की पुत्री ने घर जाकर माता-पिता से सारी बात कही। माता पिता ने उसे चुपचाप बैठने को कहा। नवक सेठ की पुत्री स्नान से निवृत्त होकर घर गई। उसने सारी बात माता-पिता से कही। उन्होंने जीर्णसेठ की पुत्री से आभरण मांगे। उसने देने से इन्कार कर दिया। जीर्णसेठ की पुत्री बोली- 'यह रूप में मुझसे सुंदर हो सकती है इसका मतलब यह नहीं कि मेरे पास आभूषण नहीं हैं।' तब नवक सेठ राज-दरबार में यह शिकायत लेकर गया। इस घटना का कोई साक्षी नहीं था। न्यायकर्ताओं ने कहा-'दोनों सखियों को बुलाया जाए।' वे दोनों उपस्थित हुईं। न्यायकर्ता ने जीर्ण सेठ की पुत्री से कहा-'यदि आभूषण तुम्हारे हैं तो तुम तिलक आदि सभी आभूषणों को धारण करके दिखाओ। जीर्णसेठ की पुत्री उन आभूषणों को पहनने लगी। जो हाथ का आभरण था उसे पैर में और पैर के आभूषण को हाथ में पहनने लगी। वह जानती नहीं थी अतः एक भी आभूषण नहीं पहन सकी। तब न्यायकर्ताओं ने जान लिया कि ये आभूषण इसके नहीं हैं। उन्होंने नवकसेठ की पुत्री से कहा- 'तुम पहन कर दिखाओ।' उसने सभी आभूषण यथास्थान पहन लिए। फिर उन्होंने कहा- इन्हें खोलकर दिखाओ। उसने क्रमश: एक-एक कर सभी आभूषण निकाल दिए। तब १. आवनि १२१, आवचू. १ पृ. ११७, ११८, हाटी. १ पृ. ६५, ६६, मटी. प. १३९, १४०। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001927
Book TitleAgam 40 Mool 01 Aavashyak Sutra Part 01
Original Sutra AuthorBhadrabahuswami
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2001
Total Pages592
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, & agam_aavashyak
File Size11 MB
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