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________________ आवश्यक निर्युक्ति ३४७ था। वह सार्थ जब एक अटवी के बीच पहुंचा तब तक वर्षाकाल प्रारंभ हो गया था। सार्थवाह ने सोचा कि मार्ग अतिदुर्गम है इसलिए आगे जाना संभव नहीं है। सार्थ उसी अटवी में रुक गया। उसके रुक जाने पर साथ वाले सभी वहीं रुक गए। जब सार्थवाह की सारी भोजन-सामग्री समाप्त हो गई तब सभी कंद-मूलफल आदि खाने लगे। उस समय साधुओं को बड़ी मुश्किल हो गई । यदि यथाकृत सामग्री मिलती तो वे ग्रहण करते, अन्यथा नहीं। काल बीतने लगा। वर्षाकाल थोड़ा रह गया तब धन सार्थवाह को यह चिन्ता हुई कि मेरे साथ वाले कोई कष्ट में तो नहीं हैं ? उसको याद आया कि मेरे साथ मुनिजन भी थे । वे कंद-मूल नहीं लेते। वे तपस्वी अभी कष्ट में होंगे। कल मैं उनको दान दूंगा। ऐसा सोचकर दूसरे दिन उसने मुनियों को निमंत्रित किया। मुनि बोले- 'हमारे लिए कल्प्य होगा तो हम ग्रहण करेंगे, अन्यथा नहीं।' धन ने पूछा - 'आपके ग्रहण योग्य क्या है ? मुनि बोले- 'जो भिक्षा हमारे लिए अकृत और अकारित है, वही कल्प्य है।' तब धन ने मुनियों को घृत आदि प्रासुक वस्तुओं का प्रचुर दान दिया । इस शुद्धदान के माहात्म्य से धन सार्थवाह मरकर उत्तरकुरु में मनुष्यरूप में उत्पन्न हुआ। वहां से मरकर वह सौधर्म देवलोक में देव बना। वहां का आयुष्य पूरा कर जंबूद्वीप के अपरविदेह में गंधिलावती विजय के वैताढ्यपर्वत में गांधार जनपद के गंधसमृद्ध विद्याधरनगर में अतिबलराजा का पौत्र, शतबलराजा का पुत्र और महाबल नाम का राजा बना। वह नाटक देखने का रसिक था। उसके अमात्य का नाम था सुबुद्धि। वह उसका मित्र था । उसके द्वारा प्रतिबुद्ध होकर महाबल राजा एक मास का आयुष्य अवशिष्ट रहने पर बावीस दिनों का अनशन कर, समाधिपूर्वक मृत्यु प्राप्त कर ईशान कल्प देवलोक के श्रीप्रभ विमान में ललितांग नामक देव बना । वहां का आयुष्य पूरा कर वह जंबूद्वीप में पुष्कलावतीविजय के लोहार्गला नगर का स्वामी वज्रजंघ नामक राजा बना। उसने अपने पश्चिम वय में पत्नी के साथ प्रव्रज्या ग्रहण करने की बात सोची। परंतु उसके पुत्र ने योगधूप से धूपित वासगृह में उसे मार डाला। वहां से मरकर उत्तरकुरु में वे मिथुन रूप में उत्पन्न हुए। वहां से सौधर्म देवलोक में देव बना। वहां से च्यवन कर महाविदेह क्षेत्र में क्षितिप्रतिष्ठित नगर में वैद्यपुत्र हुआ। जिस दिन उसका जन्म हुआ, उसी दिन चार बालकों का जन्म हुआ - राजपुत्र, श्रेष्ठीपुत्र, अमात्यपुत्र तथा सार्थवाहपुत्र । वे सभी बालक बढ़ने लगे। एक बार राजपुत्र आदि चारों मित्र वैद्यपुत्र के यहां बैठे थे। वहां एक तपस्वी मुनि भिक्षा लेने आए। कुष्ठ रोग से ग्रस्त थे। चारों मित्र उपहास करते हुए मीठे वचनों में वैद्यपुत्र से बोले - 'तुम वैद्य लोग सभी को लूट लेते हो, परन्तु तपस्वी और अनाथ की चिकित्सा नहीं करते।' वैद्य बोला- 'मैं चिकित्सा अवश्य करता परंतु मेरे पास औषधियां नहीं हैं।' मित्र बोले- 'तुम औषधियां कहीं से भी ले आओ, हम उसका मूल्य चुकायेंगे। बोलो, तुम्हें कौनसी औषधियां चाहिए ?' वैद्यपुत्र बोला- 'इस रोग के निवारण के लिए तीन वस्तुएं आवश्यक होती हैं - कंबलरत्न, गोशीर्षचन्दन तथा सहस्रपाक तैल। तैल मेरे पास है, शेष दो वस्तुएं नहीं हैं।' तब उन चारों मित्रों ने गवेषणा प्रारंभ की। उन्हें ज्ञात हुआ कि अमुक वणिक् के पास दोनों वस्तुएं हैं। वे उस वणिक् के पास दो लाख मुद्राएं लेकर दोनों चीजों को खरीदने के लिए गए । वणिक् ने संभ्रान्त होकर कहा- 'क्या दूं?' वे बोले - 'हमें कंबलरल और गोशीर्षचन्दन चाहिए ।' वणिक् ने पूछा- 'इनसे आपका क्या प्रयोजन है ?' वे बोले – 'हमें मुनि की चिकित्सा करानी है।' वणिक् बोला Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001927
Book TitleAgam 40 Mool 01 Aavashyak Sutra Part 01
Original Sutra AuthorBhadrabahuswami
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2001
Total Pages592
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, & agam_aavashyak
File Size11 MB
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