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परि. ३ : कथाएं
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कमलामेला सागरचन्द्र के प्रति मोहग्रस्त तथा धनदेव के प्रति विरक्त हो गई। उसने नारद से पूछा - 'क्या सागरचन्द्र मेरा पति हो सकता है ?' नारद ने उसे आश्वासन दिया कि मैं तुम्हारे साथ उसका संयोग कराऊंगा। कमलामेला का चित्र पट्टिका पर बनाकर नारद सागरचन्द्र के पास गया।
नारद ने सागरचन्द्र के पास जाकर कहा - 'कमलामेला तुम्हें चाहती है ।' तब सागरचन्द्र की माता तथा अन्य कुमार खिन्न होकर दुःख करने लगे। इतने में ही शांब आया और उसने सागरचन्द्र को विलाप करते हुए देखा। तब शांब ने उसके पीछे जाकर उसकी दोनों आंखें अपनी हथेलियों से ढंक दीं। सागरचन्द्र बोला- 'कमलामेला ।' शांब ने कहा- 'मैं कमलामेला नहीं, कमलामेल हूं।' सागरचन्द्र बोला- 'अच्छा, अब तुम ही मुझे विमलकमल नेत्रों वाली कमलामेला से मिलाओगे क्योंकि महापुरुष सत्यप्रतिज्ञ होते हैं । ' तब अन्य कुमारों ने शांब को मद्य पिलाया। जब वह मदिरा से मत्त हो गया तब उससे यह स्वीकृति ले ली कि वह कमलामेला से सागरचन्द्र को मिला देगा। शांब का नशा उतरा तब उसने सोचा- 'ओह ! मैंने झूठा वादा कर लिया। क्या अब इससे इन्कार हुआ जा सकता है ? अब तो मुझे इसका निर्वाह करना ही होगा ।" शाम्ब ने प्रद्युम्न से अतिशायी प्रज्ञप्ति विद्या की मांग की। उसने शाम्ब को विद्या प्रदान कर दी। कमलामेला के विवाह के दिन अपनी विद्या से उसने कमलामेला का प्रतिरूप बनाकर रख दिया और कमलामेला का अपहरण कर लिया। रेवत उद्यान में सागरचन्द्र के साथ कमलामेला का विवाह कर दिया गया। वे दोनों वहीं क्रीड़ारत रहने लगे। विद्या से बनाई गयी कमलामेला की प्रतिकृति का विवाह होने पर अट्टहास करती हुई वह उड़ गयी । यह देखकर सभी क्षुब्ध हो गए। कमलामेला का अपहरण किसने किया यह ज्ञात नहीं हो सका। नारद को पूछने पर उसने कहा- 'मैंने कमलामेला को रेवत उद्यान में देखा था । किसी विद्याधर ने उसका अपहरण किया है।' तब सेना के साथ कृष्ण कमलामेला की खोज के लिए निकले। शाम्ब विद्याधर का रूप बनाकर युद्ध करने लगा। सारे राजाओं को शाम्ब ने पराजित कर दिया। फिर वह कृष्ण के साथ युद्ध करने लगा। जब शाम्ब ने देखा कि पिताश्री रुष्ट हो गए हैं तो वह श्रीकृष्ण के चरणों में गिर पड़ा। शाम्ब ने श्रीकृष्ण को कहा- 'मैंने कमलामेला को गवाक्ष से आत्महत्या करते देखा इसलिए मैंने कमलाला का अपहरण किया है।' तब श्रीकृष्ण ने उग्रसेन को समझाया।
एक बार भगवान् अरिष्टनेमि वहां समवसृत हुए । कमलामेला और सागरचन्द्र ने भगवान् से धर्म सुनकर अणुव्रत स्वीकार किए और श्रावक बन गए। सागरचन्द्र अष्टमी, चतुर्दशी आदि को शून्यघरों और श्मशान गृह में एकरात्रिकी प्रतिमा करने लगा ।
धनदेव को जब यह बात ज्ञात हुई तो उसने तांबे की तीक्ष्ण सुइयों का निर्माण करवाया और शून्यगृह में प्रतिमा में स्थित सारगचन्द्र की बीसों अंगुलियों में सुइयां ठोक दीं। सम्यक् रूप से समतापूर्वक वेदना सहन करते हुए वह कालगत होकर देव बना । सागरचन्द्र की चारों ओर खोज होने लगी। खोजते हुए सागरचन्द्र की अंगुलियों में तांबे की सुइयां देखीं। तांबे को कूटने वाले से ज्ञात हुआ कि इन सुइयों का निर्माण धनदेव ने करवाया था । रुष्ट होकर राजकुमारों ने धनदेव की खोज की। दोनों की सेनाओं में युद्ध
होने
१. हाटी. में यह कथा संक्षिप्त रूप में है ।
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