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आवश्यक नियुक्ति
३४१ लगा। युद्ध देखकर देवरूप सागरचन्द्र ने उन दोनों को उपशान्त किया। कमलामेला विरक्त होकर भगवान् के पास प्रव्रजित हो गयी। १९. शांब का साहस
जम्बूवती ने कृष्ण से कहा- 'मैंने अपने पुत्र शांब की एक भी भूल नहीं देखी।' कृष्ण बोले'आज मैं तुम्हें उसकी भूल दिखाऊंगा।' कृष्ण और जम्बूवती-दोनों ने ग्वाले और ग्वालिन का रूप बनाया। दोनों तक लेकर द्वारिका में आए और छाछ बेचने लगे। शांब ने उन्हें देखा और पास आकर ग्वालिन से बोला- 'चलो, मैं तुम्हारी छाछ खरीद लूंगा।' ग्वालिन शांब के पीछे-पीछे चली। ग्वाला भी पीछे चला। शांब ने एक देवकुल में प्रवेश किया। ग्वालिन बोली- 'मैं अन्दर नहीं आऊंगी। मूल्य दो और यहीं तक्र ले लो।' शांब बोला- 'तुमको अवश्य ही अन्दर आना होगा।' वह अंदर जाना नहीं चाहती थी। शांव ने तब उसका हाथ पकड़ लिया। ग्वाला दौड़ कर आया और शांब से लड़ने लगा। शांब भी ग्वाले से उलझ गया। इतने में ही ग्वाले ने अपना रूप बदला। वह वासुदेव कृष्ण हो गया और ग्वालिन जम्बूवती हो गई। शांब लज्जा से शिरोवगुंठन कर भाग गया।
दूसरे दिन शांब बलात् लाई हुई एक कीलिका को ठीक करते हुए बैठा था। वासुदेव को देखकर वह उठा और जय-जयकार किया। वासुदेव ने पूछा- 'क्या घड़ रहे हो?' शांब बोला-'कल जो घटना घटी थी, उस विषय में जो कोई कुछ कहेगा, उसके मुंह में यह कील ठोक दूंगा।' २०. श्रेणिक का क्रोध
राजगृह में राजा श्रेणिक राज्य कर रहा था। उसकी रानी का नाम चेलना था। एक बार वह चरम तीर्थंकर भगवान् वर्द्धमान को वन्दना कर विकाल में लौट रही थी। उस समय माघ मास प्रवर्तित था। उसने मार्ग में एक प्रतिमाप्रतिपन्न मुनि को देखा। वह प्रासाद में आकर अपने शयनागार में सो गई। रात्रि में अचानक उसका हाथ रजाई से बाहर आ गया। जब ठंड बढ़ी तो उसका हाथ सुन्न हो गया। वह जागृत हुई
और अपना हाथ रजाई के भीतर खींच लिया। हाथ के कारण उसका पूरा शरीर ठंड से आक्रान्त हो गया। तब उसने कहा- 'वह तपस्वी अब क्या करता होगा?' श्रेणिक ने यह सुना और सोचा- 'रानी द्वारा संकेतित यह कोई पर-पुरुष है।' राजा रुष्ट हो गया। दूसरे दिन उसने अभय से कहा- 'अन्त:पुर को शीघ्र आग लगा दो।' आज्ञा देकर श्रेणिक भगवान् की उपासना करने चला गया। अभय ने पुरानी हस्तिशाला में आग लगा दी। श्रेणिक ने परिषद् के बीच भगवान् से पूछा- 'भंते ! चेलना एकपति वाली है अथवा अनेक पतिवाली ?' भगवान् बोले- 'एक पतिवाली।' यह सुनते ही श्रेणिक शांत हुआ। अभयकुमार अन्त:पुर में आग न लगा दे, इसलिए वह त्वरा से भगवान् को वन्दन कर अपने प्रासाद की ओर लौटा। अभय उसे मार्ग में मिला। श्रेणिक ने पूछा- 'अभय! क्या आग लगा दी?' अभय बोला- 'हां राजन् !' श्रेणिक ने तब व्याकुल होकर कहा- 'तुम भी उस अग्नि में प्रविष्ट क्यों नहीं हो गए?' अभय बोला- 'राजन् ! मुझे अग्नि
१. आवनि ११९, आवचू. १ पृ. ११२-११४, हाटी. १ पृ. ६३, मटी. प. १३६, १३७, बृभाटी. पृ. ५६, ५७। २. आवनि ११९, आवचू. १ पृ. ११४, हाटी. १ पृ. ६३, ६४, मटी. प. १३७, बृभाटी. पृ. ५७।
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