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________________ २५४ आवश्यक नियुक्ति ५८६/१६. गुरुतर कार्यभार को वहन करने में समर्थ, त्रिवर्ग (धर्म, अर्थ और काम) के सूत्रार्थ के सार को ग्रहण करने वाली, उभय लोक के फल से युक्त तथा विनय से उत्पन्न बुद्धि का नाम वैनयिकी है। ५८८/१७,१८. वैनयिकी बुद्धि के चौदह उदाहरण हैं-१. निमित्त, २. अर्थशास्त्र, ३. लेखन, ४. गणित, ५. कूप, ६. अश्व, ७. गर्दभ, ८. लक्षण, ९. गांठ, १०. औषध, ११. गणिका और रथिक, १२. भीगी हुई साड़ी, दीर्घतृण, उल्टा घूमता हुआ क्रौंच पक्षी, १३. नीव्रोदक-नेवे का पानी, १४. बैल, अश्व और वृक्ष से गिरना। ५८८/१९. उपयोग (दत्तचित्तता) के द्वारा कर्म के रहस्य को देखने वाली, कर्म के अभ्यास तथा विचार से विशाल, साधुवाद के फलवाली तथा कर्म से उत्पन्न होने वाली बुद्धि कर्मजा है। ५८८/२०. कर्मजा बुद्धि के बारह उदाहरण हैं?—१. स्वर्णकार, २. कृषक, ३. जुलाहा, ४. डोव, ५. मौक्तिक-मणिकार, ६. घृत-व्यापारी, ७. प्लवक, ८. तंतुवाय-जुलाहा, ९. बढई, १०. रसोइया, ११ कुंभकार तथा १२. चित्रकार। ५८८/२१. अनुमान, हेतु और दृष्टान्त से साध्य को सिद्ध करने वाली, वयविपाक से परिपक्व होने वाली, अभ्युदय और निःश्रेयस फलवाली बुद्धि का नाम पारिणामिकी है। ५८८/२२,२३. पारिणामिकी बुद्धि वाले व्यक्ति–१. अभयकुमार, २. श्रेष्ठी, ३. कुमार, ४. देवी, ५. उदितोदितराजा, ६. साधु और नन्दिषेण, ७. धनदत्त, ८. श्रावक, ९. अमात्य, १०. क्षपक, ११. अमात्यपुत्र, १२. चाणक्य १३. स्थूलिभद्र १४. नासिक्य सुंदरीनंद तथा १५. आर्यवज्र। १. वैनयिकी बुद्धि की चौदह कथाओं के लिए देखें परि. ३ कथाएं। २. १. जैसे कुशल स्वर्णकार अंधेरे में भी रुपये को छूकर परीक्षा कर लेता है कि सिक्का खोटा है अथवा असली? २. जुलाहा तंतुओं को मुट्ठी में लेकर जान लेता है कि धागों के इतने कंडकों से पट बन जाएगा। ३. दर्वीकार-चाटु बनाने वाला जान लेता है कि इस दर्वी में इतना समाएगा। ४. मुक्ताकार मोती को आकाश में फेंककर सूअर के बालों से निर्मित धागे को इस प्रकार खड़ा करता है कि ऊपर से गिरते हुए मोती धागे के छेद में प्रवेश कर जाएं। ५. विज्ञान के प्रकर्ष पर पहुंचा हुआ घृत-विक्रेता गाड़ी में बैठे-बैठे ही कुण्डिकानाल में घृत का प्रक्षेप कर सकता है। ६. प्लवक-नट आकाश में बांस पर चढ़कर अनेक करतब दिखा सकता है। ७. निपुण जुलाहा पहले स्थूल सिलाई करता है, फिर सूई से इतना महीन सीता है कि दूसरों को पता ही नहीं चलता कि सिलाई कहां की है? जैसे भगवान् महावीर के आधे दूष्य के साथ दूसरा आधा भाग सन्धिकारक ने इस प्रकार से जोड़ा कि उस वस्त्र की संधि दृग्गोचर नहीं होती थी। ८. वर्धकि-निपुण बढई बिना मापे देवकुल, रथ आदि का प्रमाण जान लेता है। ९. आपूपिक-हलवाई आटे को मापे बिना ही रोटी का परिमाण बता देता है। १०. कुंभकार-निपुण कुंभकार विवक्षित घट के लिए प्रमाणोपेत मिट्टी ग्रहण करता है तथा घट आदि भांड़ों का प्रमाण बिना मापे ही जान लेता है। ११. चित्रकार-निपुण चित्रकार माप किए बिना ही प्रमाणयुक्त चित्र बना देता है। वह उतना ही रंग घोलता है, जितने से चित्र पूरा बन जाए। ३. देखें परि. ३ कथाएं। ४. पारिणामिकी बुद्धि वाले व्यक्तियों की कथाओं के लिए देखें परि. ३ कथाएं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001927
Book TitleAgam 40 Mool 01 Aavashyak Sutra Part 01
Original Sutra AuthorBhadrabahuswami
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2001
Total Pages592
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, & agam_aavashyak
File Size11 MB
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