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आवश्यक नियुक्ति
२५५ ५८८/२४. चरण से आहत, कृत्रिम आंवला', मणि, सर्प, गेंडा, स्तूप-पतन तथा इन्द्रपादुका-ये सारे पारिणामिकी बुद्धि के उदाहरण हैं। ५८८/२५. जो दृढप्रहारी की भांति तपस्या में क्लान्त नहीं होता, वह तप:सिद्ध होता है। जिसने समस्त कर्मांशों को क्षीण कर दिया है, वह कर्मक्षयसिद्ध होता है। ५८९. सित का अर्थ है-बद्ध तथा ध्मात का अर्थ है-दग्ध । जो आठ प्रकार की बद्ध दीर्घकालिक कर्मरजों को दग्ध करता है, वह सिद्धत्व को प्राप्त होता है। ५९०. वेदनीय कर्म की अधिकता और आयुष्य कर्म की अल्पता जानकर केवली समुद्घात करते हैं और अशेष कर्मों का क्षय कर देते हैं। ५९१. केवली आत्मप्रदेशों को प्रथम चार समय में क्रमश: दंड, कपाट, मंथान, मन्थान्तर (अन्तरावगाह) के आकार में पूरे लोक में फैलाता है फिर प्रतिलोमक्रम से संहरण करता हुआ जीव शरीरस्थ हो जाता है। उसके बाद वह भाषा और योग का निरोध कर शैलेशी अवस्था को प्राप्त कर सिद्ध हो जाता है। ५९२. जैसे भीगी हुई शाटिका को फैलाकर सुखाने से वह शीघ्र सूख जाती है, उसी प्रकार जिन भगवान् के समुद्घात के द्वारा कर्मों की दीर्घकालिक स्थिति अल्प हो जाती है। ५९३. जैसे अलाबु, एरंडफल, अग्नि, धूम तथा धनुष्य से छूटा हुआ बाण-इन सबकी गति पूर्वप्रयोग से होती है, वैसे ही सिद्धों की गति होती है।' ५९४. सिद्ध कहां प्रतिहत होते हैं ? कहां स्थित होते हैं ? कहां शरीर छोड़ते हैं और कहां जाकर सिद्ध होते
५९५. सिद्ध अलोक से प्रतिहत होते हैं। लोक के अग्रभाग में स्थित होते हैं। मनुष्य लोक में शरीर को छोड़ते हैं और लोक के अग्रभाग में जाकर सिद्ध होते हैं। ५९५/१. ईषत्प्राग्भारा पृथ्वी का अपर नाम सीता है। उससे एक योजन ऊपर लोकान्त है। सर्वार्थसिद्ध से बारह योजन ऊपर सिद्धि-क्षेत्र है।
१. कठोर स्पर्श और अऋतुक आंवले को देखकर जानना कि यह आंवला कृत्रिम है। यह पारिणामिकी बुद्धि का उदाहरण
२. विभामहे गा. ३०५४, ३०५५; केवली समुद्घात में मनयोग और वचनयोग का व्यापार नहीं होता। पहले और आठवें
समय में औदारिक काययोग होता है। दूसरे, छठे और सातवें समय में औदारिक मिश्र तथा तीसरे, चौथे और पांचवें
समय में कार्मण काययोग होता है। ३. जैसे एक तुम्बा, जिस पर मिट्टी के आठ लेप लगे हुए हैं, पानी में डूब जाता है। एक-एक लेप के हट जाने से निर्लेप
बना हुआ तुम्बा जल-तल से ऊर्ध्वगति कर जल पर तैरने लगता है, वैसे ही आठ प्रकार के कर्मलेप से मुक्त आत्मा की नि:संगता के कारण ऊर्ध्वगति होती है। वृन्त से टूटने पर एरंड की फली ऊर्ध्व गति करती है तथा अग्नि और धूम्र की स्वभाव से ही ऊर्ध्व गति होती है। धनुष से छूटे हुए बाण और कुलालचक्र की पूर्वप्रयोग के कारण गति होती है। इसी प्रकार मुक्त आत्मा की अगुरुलघुत्व, पूर्वप्रयोग तथा स्वभाव के कारण ऊर्ध्व गति होती है (आवहाटी. १ पृ. २९५)।
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