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________________ आवश्यक नियुक्ति २५३ जाती है, वह आर्य खपुट' की भांति विद्यासिद्ध कहलाता है। ५८८/६. जिसके सभी मंत्र अधीन हो गए हैं अथवा जिसके बहुत सारे मंत्र अथवा कोई प्रधानमंत्र सिद्ध हो गया हो, वह स्तंभाकर्षवत्' सातिशय मंत्रसिद्ध अथवा प्रधानमंत्रविद् कहलाता है। ५८८/७. विभिन्न द्रव्यों के विभिन्न योग आश्चर्य पैदा करने वाले होते हैं अथवा एक द्रव्य का योग भी जिसके सिद्ध हो जाता है, वह योग--सिद्ध कहलाता है, जैसे-आर्य समित। ५८८/८. आगमसिद्ध वह होता है, जो गौतम की भांति गुणराशि से युक्त, सर्वांगपारग, प्रचुरार्थ का ज्ञाता होता है। जो अत्यधिक अर्थनिष्ठ-धननिष्ठ होता है, वह अर्थसिद्ध कहलाता है, जैसे-मम्मण। ५८८/९. जो सदा सिद्धयात्रा वाला तथा तुंडिक' की भांति वरप्राप्त होता है, वह यात्रासिद्ध होता है। बुद्धि का पर्याय है अभिप्राय। ५८८/१०,११. जिसकी मति विपुल, विमल तथा सूक्ष्म होती है, वह बुद्धिसिद्ध होता है अथवा जो औत्पत्तिकी आदि चार प्रकार की बुद्धियों से संपन्न होता है, वह बुद्धिसिद्ध कहलाता है। वे चार बुद्धियां ये हैं-औत्पत्तिकी, वैनयिकी, कार्मिकी तथा पारिणामिकी। ये चार प्रकार की बुद्धियां कही गई हैं। पांचवीं उपलब्ध नहीं है। ५८८/१२. पहले अदृष्ट, अश्रुत तथा अनालोचित अर्थ को यथार्थ रूप में तत्क्षण ग्रहण करने वाली औत्पत्तिकी बुद्धि होती है। इससे होने वाला बोध अव्याहत फल वाला होता है अर्थात् लौकिक एवं लोकोत्तर प्रयोजन से बाधित नहीं होता। ५८८/१३-१५. औत्पत्तिकी बुद्धि के अड़तीस उदाहरण हैं-१. भरतशिला, २. मेंढा, ३. कुक्कुट, ४. तिल, ५. बालुका, ६. हाथी, ७. कूप, ८. वनषंड, ९. खीर, १०. अजिका-बकरी, ११. पत्र, १२. गिलहरी, १३. पांच पिता, भरतशिला', १४. पणित-शर्त, १५. वृक्ष, १६. मुद्रिका, १७. वस्त्र-खंड, १८. सरट-गिरगिट, १९. काक, २०. उत्सर्ग, २१. गज, २२. घयण-भांड, २३. लाख का गोला, २४. खंभा, २५ क्षुल्लक, २६. मार्ग-स्त्री, २७. पति, २८. पुत्र, २९. मधुमक्खियों का छाता, ३०. मुद्रिका, ३१. अंक, ३२. नाणक-रुपयों की नौली, ३३. भिक्षु,३४. बालक का निधान, ३५. शिक्षा, ३६. अर्थशास्त्र, ३७. मेरी इच्छा, ३८. एक लाख। १-५. देखें परि. ३ कथाएं। ६. आवहाटी. १ पृ. २७६ ; जो जल, स्थल तथा आकाश मार्गों से यथेष्ट यात्रा करने में निपुण होता है, जो बारह बार सामुद्रिक यात्रा में अपना कार्य सम्पन्न कर सकुशल लौट आता है, अन्यान्य यात्री भी जिससे यात्रासिद्धि की मंत्रणा करते हैं, वह यात्रासिद्ध कहलाता है। ७. आवहाटी. १ पृ. २७७ ; शास्त्रों के अभ्यास एवं कर्मपरिशीलन के बिना ही जो स्वतः उत्पन्न होती है, वह औत्पत्तिकी बुद्धि कहलाती है। यह प्रातिभज्ञान है। जो प्रयोजन से युक्त तथा किसी दूसरे प्रयोजन से अव्याहत है। ९. यहां भरतशिला दृष्टान्त पुनरुक्त हुआ है। नंदी में ५८८/१३ वीं गाथा प्रक्षिप्त मानी है। १०. औत्पत्तिकी बुद्धि की ३८ कथाओं के लिए देखें परि. ३ कथाएं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org |
SR No.001927
Book TitleAgam 40 Mool 01 Aavashyak Sutra Part 01
Original Sutra AuthorBhadrabahuswami
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2001
Total Pages592
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, & agam_aavashyak
File Size11 MB
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