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________________ २५२ आवश्यक नियुक्ति कर्मरजों का नाश करने वाले हैं अतः अरिहंत कहलाते हैं। ५८४. अर्हतों को किया गया भावपूर्वक नमस्कार जीव को सहस्र भवों से मुक्त कर देता है। वह नमस्कार उसके बोधिलाभ के लिए होता है। ५८५. भवक्षय करने वाले धन्य व्यक्तियों के हृदय को न छोड़ता हुआ यह 'अर्हद् नमस्कार' विस्रोतसिका का वारक होता है। ५८६. इस प्रकार अर्हद्नमस्कार महान् अर्थ वाला वर्णित है। मृत्युकाल के समीप होने पर इसका स्मरण बार-बार और अनवरत किया जाता है। ५८७. यह अर्हनमस्कार सभी पापों का प्रणाशक तथा सभी मंगलों में प्रधान मंगल है। ५८८. सिद्ध शब्द के १४ निक्षेप हैं१. नामसिद्ध ८. योगसिद्ध २. स्थापनासिद्ध ९. आगमसिद्ध ३. द्रव्यसिद्ध १०. अर्थसिद्ध ४. कर्मसिद्ध ११. यात्रासिद्ध ५. शिल्पसिद्ध १२. अभिप्रायसिद्ध ६. विद्यासिद्ध १३. तप:सिद्ध ७. मंत्रसिद्ध १४. कर्मक्षयसिद्ध। ५८८/१. कर्म अनाचार्योपदिष्ट होता है, वह किसी आचार्य द्वारा निर्दिष्ट नहीं होता। शिल्प आचार्योपदिष्ट होता है। कृषि, वाणिज्य आदि कर्म हैं तथा घटकार, लोहकार आदि शिल्प हैं। ५८८/२. जो सर्वकर्मकुशल होता है अथवा जो 'सह्यगिरिसिद्धक' की भांति जिस किसी एक कर्म में सुपरिनिष्ठित होता है, वह कर्मसिद्ध कहलाता है।' ५८८/३. जो सभी शिल्पों में कुशल होता है अथवा जो कोकाश वर्द्धकि' की भांति किसी एक शिल्प में सुपरिनिष्ठित अथवा अतिशययुक्त होता है, वह शिल्पसिद्ध कहलाता है। ५८८/४. विद्या स्त्री देवता द्वारा तथा मंत्र पुरुष देवता द्वारा अधिष्ठित होता है। उनमें विशेष अंतर यह है कि विद्या ससाधन होती है तथा मंत्र साधनरहित होता है। ५८८/५. जो सभी प्रकार की विद्याओं का चक्रवर्ती होता है अथवा जिसके एक भी महाविद्या सिद्ध हो १, २. देखें परि. ३ कथाएं। ३. आवहाटी. १ पृ. २७६ ; जो आचार्य द्वारा शिक्षित अथवा किसी ग्रंथ द्वारा गृहीत विशिष्ट कर्म है, वह शिल्प कहलाता है। घटनिर्माण, मूर्तिनिर्माण आदि शिल्प हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001927
Book TitleAgam 40 Mool 01 Aavashyak Sutra Part 01
Original Sutra AuthorBhadrabahuswami
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2001
Total Pages592
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, & agam_aavashyak
File Size11 MB
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