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________________ आवश्यक नियुक्ति २५१ ५८२ / ६, ७. अर्हत् भगवान् ने सम्यग्दृष्टि से निर्वाणमार्ग को देखा, सम्यग्ज्ञान से उसको अच्छी तरह जाना तथा चरणकरण से उस मार्ग की अनुपालना की। वे सिद्धि-सदन को प्राप्त कर निर्वाण-सुख को उपलब्ध हुए तथा शाश्वत, अव्याबाध और अजरामर स्थान को प्राप्त हो गए । ५८२/८. जैसे निर्यामक समुद्र को सम्यक् रूप से पार करा देते हैं, वैसे ही जिनेन्द्रदेव भव - जलनिधि को पार करा देते हैं इसीलिए अर्हत् नमस्कार के योग्य होते हैं । ५८२/९. मिथ्यात्व रूपी 'कालिकावायु से विरहित तथा सम्यक्त्व रूपी 'गर्जभर प्रवात से युक्त भवसमुद्र से जीव-रूपी पोत एक समय में ही सिद्धि रूपी नगरी में पहुंच जाता है। ५८२ / १०. अमूढज्ञान - यथार्थज्ञान तथा मति के कर्णधार, त्रिदंडविरत, निर्यामकरत्न अर्हतों को विनय से प्रणत होकर मैं तीन करण, तीन योग से वंदना करता हूं। ५८२/११-१३. जैसे ग्वाला अपने गोवर्ग का सांप, श्वापद, दुर्गमस्थान आदि से रक्षा करता है तथा उन्हें प्रचुर घास, पानी वाले वन में ले जाता है, वैसे ही ये महागोप (अर्हत्) जीवों की मरणभय से रक्षा करते हैं तथा निर्वाण रूपी वन को प्राप्त कराते हैं। जिनेन्द्रदेव भव्य जीव लोक के उपकारी तथा लोकोत्तम होने के कारण सभी के लिए नमस्कार योग्य होते हैं । ५८३. अर्हत् राग-द्वेष, कषाय, पांच इन्द्रिय, परीषह तथा उपसर्गों पर विजय पा लेते हैं अतः वे नमस्कार के योग्य हैं। ५८३/१. इन्द्रिय, विषय, कषाय, परीषह, वेदना और उपसर्ग - ये अरि-शत्रु हैं। इनका हनन करने वालों को अरिहंत कहा जाता है। ५८३/२. आठ प्रकार के कर्म सभी जीवों के लिए अरिभूत - शत्रु तुल्य हैं। इन कर्म रूपी अरि- शत्रुओं का हनन करने वालों को अरिहंत कहा जाता है। ५८३/३. जो वंदन - नमस्कार तथा पूजा और सत्कार के योग्य हैं तथा सिद्धि प्राप्त कराने में समर्थ हैं, वे अर्हत् कहलाते हैं। ५८३/४. अर्हत् देव, असुर और मनुष्यों से पूजे जाते हैं इसलिए वे देवोत्तम । वे अरि-शत्रुओं का तथा १. समुद्र में कालिकावात नौका के लिए अनुकूल नहीं रहती । २. सामुद्रिक हवाएं सोलह प्रकार की होती हैं। उनमें एक गर्जभ वायु है, जो नौका को अनूकुलता से पार पहुंचा देती है। सोलह सामुद्रिक वायु इस प्रकार हैं - १. पूर्वी हवा २. दक्षिणी हवा ३. पश्चिमी हवा ४. उत्तरी हवा ५. उत्तरपूर्व में सत्त्वासुक. ६. दक्षिणपूर्व में तुंगार ७. दक्षिणपश्चिम में वीताप ( बीजाक ) ८. पश्चिमउत्तर में गर्जभ ९. उत्तरी सत्त्वासुक १०. पूर्वी सत्त्वासुक ११. पूर्वी तुंगार १२. दक्षिणी तुंगार १३. दक्षिणी वीताप १४. पश्चिमी वीताप १५. पश्चिमी गर्जभ १६. उत्तरी गर्जभ ( आवचू. १ पृ. ५१२, आवहाटी. १ पृ. २५८ ) । ३. राग-द्वेष आदि की कथाओं के लिए देखें परि. ३ कथाएं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001927
Book TitleAgam 40 Mool 01 Aavashyak Sutra Part 01
Original Sutra AuthorBhadrabahuswami
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2001
Total Pages592
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, & agam_aavashyak
File Size11 MB
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