________________
२४६
आवश्यक नियुक्ति ५६५/४. मैं जीवन से निरपेक्ष मेतार्य ऋषि को नमस्कार करता हूं, जिसने क्रौंच पक्षी के अपराध को जानते हुए भी प्राणिदया से प्रेरित होकर क्रौंच का नाम नहीं लिया। ५६५/५. शिरोबंधन से मेतार्य मुनि की दोनों आंखें भूमि पर गिर पड़ीं, फिर भी वे मुनि मंदर पर्वत की भांति संयम से विचलित नहीं हुए। ५६५/६. तुरुमिणी नगर में राजा दत्त ने आर्यकालक से यज्ञ का फल पूछा। समता से भावित मुनि ने सम्यग् कथन किया। ५६५/७. जिसने तीन पदों-उपशम, विवेक और संवर से सम्यक्त्व प्राप्त किया, संयम में आरूढ़ उस चिलातपुत्र को मैं नमस्कार करता हूं। ५६५/८. जिसके रक्त की गंध से पैरों से प्रवेश कर चींटियां उत्तमांग-शिर तक चली गईं, उस दुष्कर कारक चिलातपुत्र को मैं वंदना करता हूं। ५६५/९. धैर्य संपन्न चिलातपुत्र चींटियों से खाया जाता हुआ चलनी की भांति हो गया, फिर भी वह उत्तमार्थ-शुभ परिणामों की अविचलता को प्राप्त हुआ। ५६५/१०. ढाई दिन-रात में चिलातपुत्र ने अप्सराओं से संकुल और रम्य देवेन्द्र के अमरभवन-देवलोक को प्राप्त कर लिया। ५६५/११. चार ऋषियों ने एक-एक लाख श्लोक परिमाण का एक-एक ग्रंथ बनाकर राजा को सुनने हेतु कहा। राजा के कहने पर चारों ग्रंथों का मात्र एक श्लोक रखा, यह संक्षेप का उदाहरण है। ५६५/१२. अनाकुट्टि-अहिंसा की बात को सुनकर पापभीरू धर्मरुचि अनगार ने पाप का वर्जन कर अनवद्यता-अनगारता को स्वीकार कर लिया। ५६५/१३. ज्ञपरिज्ञा से जीव और अजीव को जानकर इलापुत्र ने सावधयोग का परित्याग कर दिया।' ५६५/१४. तेतलिपुत्र ने जीव-अजीव तथा पुण्य-पाप को प्रत्यक्षतः जानकर सावध योग का प्रत्याख्यान कर दिया। ५६५/१५. सूत्र वह होता है, जो अल्पग्रंथ वाला, महान् अर्थवाला, बत्तीस दोषों से रहित, लक्षणयुक्त तथा आठ गुणों से युक्त होता है
१-३. देखें परि. ३ कथाएं। ४. जीर्णे भोजनमात्रेयः, कपिलः प्राणिनां दया।
बृहस्पतिरविश्वासः, पाञ्चालः स्त्रीषु मार्दवम्॥ ५-८. देखें परि. ३ कथाएं।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org