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आवश्यक नियुक्ति
२४५ ५६१. सम्यग्दृष्टि, अमोह, शोधि, सद्भाव, दर्शन, बोधि, अविपर्यय तथा सुदृष्टि-ये सम्यक्त्वसामायिक के निरुक्त-एकार्थक हैं। ५६२. श्रुतसामायिक के निरुक्त हैं-अक्षर, संज्ञी, सम्यक्, सादि, सपर्यवसित, गमिक, अंगप्रविष्ट । ये सातों पद सप्रतिपक्ष हैं। ५६३. विरताविरति, संवृतअसंवृत, बालपंडित, देशैकदेशविरति, अनुधर्म तथा अगारधर्म-ये देशविरति सामायिक के निरुक्त हैं। ५६४. सामायिक, समयिक, सम्यग्वाद, समास, संक्षेप, अनवद्य, परिज्ञा तथा प्रत्याख्यान-ये सर्वविरतिसामायिक के आठ पर्याय हैं। ५६५. इन आठों से संबंधित आठ उदाहरण इस प्रकार हैं-दमदंत, मेतार्य, कालकपृच्छा, चिलात, आत्रेय, धर्मरुचि, इला, तेतलि। ५६५/१. जो मुनि वंदना किए जाने पर उत्कर्ष को प्राप्त नहीं होते और तिरस्कृत होने पर क्रोधाग्नि को प्रगट नहीं करते, वे धीर मुनि राग-द्वेष को नष्ट कर उपशांत चित्त से विहरण करते हैं। ५६५/२. जो सुमन-अच्छे मन वाला होता है, भाव से पापमन वाला नहीं होता, स्वजन और अन्य जन में तथा मान और अपमान में सम रहता है, वह समण होता है। ५६५/३. जिसके सभी प्राणियों में न कोई द्वेष्य है और न कोई प्रिय, इसी दृष्टि से वह 'समण' होता है। यह श्रमण का दूसरा पर्यायवाची नाम है।
१. सम्यग्दृष्टि-अविपरीत प्रशस्त दृष्टि।
अमोह-अवितथ आग्रह। शोधि-मिथ्यात्व का अपनयन। सद्भावदर्शन-जिन-प्रवचन की उपलब्धि। बोधि-परमार्थ का बोध। अविपर्यय-तत्त्व का निश्चय।
सुदृष्टि-प्रशस्त दृष्टि। (आवहाटी १ पृ. २४२, २४३) २. सामायिक-जिसमें सम-मध्यस्थभाव की उपलब्धि होती है।
समयिक-सब जीवों के प्रति सम्यक्-दयापूर्ण प्रवर्त्तन। सम्यग्वाद-रागद्वेष मुक्त होकर यथार्थ कथन करना। समास-जीव का संसार-समुद्र से पार होना अथवा कर्मों का सम्यक् क्षेपण। संक्षेप-महान् अर्थ का अल्पाक्षर में कथन जैसे यह सामायिक द्वादशांगी का सार है। अनवद्य-पापशून्य प्रक्रिया। परिज्ञा-पाप के परित्याग का सम्पूर्ण ज्ञान।
प्रत्याख्यान-गुरु-साक्षी से हेय प्रवृत्ति से निवृत्ति (आवहाटी १ पृ. २४३)। ३. देखें परि. ३ कथाएं।
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