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________________ २४४ आवश्यक नियुक्ति का जघन्य अविरहप्रतिपत्ति काल दो समय का है। (इसके पश्चात् उनका विरहकाल प्रारम्भ हो जाता है।) ५५५. श्रुतसामायिक और सम्यक्त्वसामायिक का उत्कृष्ट प्रतिपत्ति विरहकाल' सात अहोरात्र, विरताविरतिसामायिक का बारह अहोरात्र तथा विरतिसामायिक का पन्द्रह अहोरात्र का होता है। ५५६. सम्यक्त्वसामायिक तथा देशविरतिसामायिक-इन दो सामायिकों के उत्कृष्ट प्रतिपत्ति भव क्षेत्र पल्योपम के असंख्य भाग मात्र में जितने आकाश प्रदेश हैं, उतने हैं। चारित्रसामायिक में आठ भव तथा श्रुतसामायिक में अनंतभव का विधान है। (चारों सामायिक के प्रतिपत्ताओं का जघन्य एक भव होता है।) ५५७. सम्यक्त्वसामायिक, श्रुतसामायिक तथा देशविरतिसामायिक-इन तीनों का एक भव में आकर्ष सहस्रपृथक्त्व तथा विरतिसामायिक के एक भव में आकर्ष शतपृथक्त्व (२०० से ९००) हैं। ५५८. सम्यक्त्वसामायिक, श्रुतसामायिक तथा देशविरतिसामायिक के असंख्येय सहस्र आकर्ष और सर्वविरतिसामायिक के सहस्रपृथक्त्व (२००० से ९०००) आकर्ष होते हैं। ये आकर्ष अनेक भवों की अपेक्षा से हैं। ५५९. सम्यक्त्वसामायिक तथा सर्वविरतिसामायिक सहित प्राणी निरवशेष रूप से समस्त लोक का स्पर्श करते हैं। श्रुतसामायिक सहित प्राणी चतुर्दश भाग में सप्त भाग का तथा देशविरतिसामायिक सहित प्राणी चतुर्दश भाग में पांच भाग का स्पर्श करते हैं। ५६०. सभी जीवों ने सामान्य श्रुतसामायिक का स्पर्श किया है। सम्यक्त्वसामायिक तथा चारित्रसामायिक का स्पर्श सभी सिद्धों ने किया है। देशविरतिसामायिक का स्पर्श असंख्येय भाग न्यून सिद्धों जितना है। १. जिस काल में सामायिक का प्रतिपत्ता कोई नहीं होता, वह उसका विरहकाल है। २. सम्यक्त्व और श्रुत सामायिक का जघन्य प्रतिपत्ति विरहकाल एक समय, देशविरतिसामायिक और विरतिसामायिक का जघन्य प्रतिपत्ति विरहकाल तीन समय है (आवहाटी. १ पृ. २४२)। ३. आवहाटी १ पृ. २४२; आकर्षणम् आकर्षः प्रथमतया मुक्तस्य वा ग्रहणमित्यर्थः। ४. जघन्य रूप से सम्यक्त्व तथा चारित्रसहित प्राणी लोक के असंख्येय भाग का स्पर्श करते हैं (आवहाटी. १ पृ. २४२)। ५. सम्यक्त्वसामायिक और सर्वविरतिसामायिक से सम्पन्न जीव केवली समुदघात के समय सम्पूर्ण लोक का स्पर्श करता है। श्रुतसामायिक और सर्वविरतिसामायिक से उत्पन्न जीव इलिका गति से अनुत्तरविमान में उत्पन्न होता है तब वह लोक के सप्त चतुर्दश ७/१४ भाग का स्पर्श करता है। सम्यक्त्वसामायिक और श्रुतसामायिक से सम्पन्न जीव छठी नारकी में इलिका गति से उत्पन्न होता है, तब वह लोक के पञ्च चतुर्दश ५/१४ भाग का स्पर्श करता है। देशविरति सामायिक से सम्पन्न जीव यदि इलिका गति से अच्युत देवलोक में उत्पन्न होता है तो वह पंच चतुर्दश ५/१४ भाग का स्पर्श करता है। यदि अन्य देवलोकों में उत्पन्न होता है तो वह द्विचतुर्दश २/१४ आदि भागों का स्पर्श करता है (आवहाटी. १ पृ. २४२)। ६.सब सिद्धों को बुद्धि से कल्पित असंख्येय भागों में विभक्त करने पर देशविरतिसामायिक असंख्येय भाग न्यून सिद्धों द्वारा स्पृष्ट है। यह स्थिति तब आती है जब कोई जीव देशविरतिसामायिक का स्पर्श किए बिना ही मुक्त हो जाता है। जैसेमरुदेवा माता (आवहाटी. १ पृ. २४२)। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001927
Book TitleAgam 40 Mool 01 Aavashyak Sutra Part 01
Original Sutra AuthorBhadrabahuswami
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2001
Total Pages592
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, & agam_aavashyak
File Size11 MB
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