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आवश्यक नियुक्ति ५१२. दिशा के सात निक्षेप हैं१. नामदिक्
५. तापक्षेत्रदिक् २. स्थापनादिक्
६. प्रज्ञापकदिक् ३. द्रव्यदिक्
७. भावदिक्। ४. क्षेत्रदिक् भावदिक् अठारह प्रकार की होती है। ५१२/१. सूर्य के आश्रित दिशा तापक्षेत्र दिशा है। जिस क्षेत्र के लोगों के जिस दिशा में सूर्य उदित होता है, वह उनके लिए पूर्वदिशा है। सूर्य की ओर मुंह किए खड़े मनुष्य की दाहिनी ओर दक्षिण, पीठ की तरफ पश्चिम तथा बायीं ओर उत्तर दिशा होती है। ५१२/२. प्रज्ञापक जिस दिशा के अभिमुख होकर सूत्र आदि की व्याख्या करता है, वह पूर्वदिशा है। दक्षिण पार्श्व से दक्षिण आदि दिशाएं होती हैं। भावदिशाएं अठारह प्रकार की हैं, जिनमें जीव की गति और आगति होती है। ५१२/३, ४. कर्म के वशीभूत होकर जीव विभिन्न दिशाओं में भ्रमण करते हैं। वे भावदिशाएं कहलाती हैं। उनके अठारह प्रकार हैं१. पृथ्वी ७. अग्रबीज
१३. सम्मूर्छिम मनुष्य २. जल ८. पर्वबीज
१४. कर्मभूमिज मनुष्य ३. अग्नि ९. द्वीन्द्रिय
१५. अकर्मभूमिज मनुष्य ४. वायु १०. त्रीन्द्रिय
१६. अन्तर्वीपज मनुष्य ५. मूलबीज ११. चतुरिन्द्रय
१७. नारक ६. स्कंधबीज १२. तिर्यञ्च पंचेन्द्रिय १८. देव। ५१३. सामायिकों का प्रतिपद्यमानक पूर्व आदि महादिशाओं में होता है। पूर्वप्रतिपन्नक किसी भी दिशा में हो सकता है।
५१४. सम्यक्त्वसामायिक तथा श्रुतसामायिक की प्रतिपत्ति छहों कालखण्डों में होती है। विरति-सर्वचारित्रसामायिक तथा विरताविरति-देशचारित्रसामायिक दो अथवा तीन कालों में होती हैं।
१. तिर्यक् लोक के मध्य में मेरु के मध्यभाग में आठ रुचक प्रदेश हैं। ये रुचक प्रदेश दिशाओं और विदिशाओं के उत्पत्ति
स्थल हैं (ठाणं १०/३०, आनि ४२)। २. इसे तापदिशा भी कहा जाता है। सूर्य की किरणों के स्पर्श से उत्पन्न प्रकाशात्मक परिताप से युक्त क्षेत्र तापक्षेत्र कहलाता
है। उससे सम्बन्धित दिशाएं तापक्षेत्र दिशा कहलाती हैं। ये दिशाएं सूर्य के अधीन होने के कारण अनियत होती हैं
(आवमटी. प. ४३९)। ३. उत्सर्पिणी काल में-दुःषमसुषमा तथा सुषमदुःषमा में।
अवसर्पिणी काल में-सुषमदुःषमा, दु:षमसुषमा तथा दुःषमा में (आवहाटी. १ पृ. २२२) ।
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