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आवश्यक निर्युक्ति
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५०१. जिसकी आत्मा संयम, नियम और तप में सन्निहित होती है, उसके सामायिक होती है, यह केवलियों का कथन है।
५०२. जो त्रस और स्थावर - सभी प्राणियों के प्रति सम रहता है, उसके सामायिक होती है, ऐसा केवलियों का कथन है। I
५०३. सावद्ययोग के परिवर्जन हेतु सामायिक परिपूर्ण और प्रशस्त अनुष्ठान है । 'यही गृहस्थधर्म में प्रधान है' यह जानकर विद्वान् व्यक्ति आत्महित तथा मोक्ष के लिए इसकी अनुपालना करे।
५०४. जो व्यक्ति ‘सर्व सावद्ययोग का प्रत्याख्यान करता हूं' ऐसा कहता है, परन्तु जिसकी विरति पूर्णरूपेण नहीं है, वह सर्वविरतिवादी देशविरति और सर्वविरति से भी भ्रष्ट हो जाता है।
५०५. सामायिक करने पर श्रावक भी श्रमण तुल्य जाता है, इस कारण से अनेक बार सामायिक करनी चाहिए ।
५०५/१. जीव अनेक प्रकार से, बहुविध विषयों में प्रमादबहुल होता है इसलिए मुक्त होने के लिए बहुत बार सामायिक करनी चाहिए।
५०६. जो न रागभाव में वर्तन करता है और न द्वेषभाव में, किन्तु दोनों के मध्य मध्यस्थभाव में रहता है, वह मध्यस्थ होता है, शेष सारे अमध्यस्थ हैं।
५०७-५०९. सामायिक के ये द्वार हैं- क्षेत्र, दिग्, काल, गति, भव्य, संज्ञी, उच्छ्वास, दृष्टि, आहारक, पर्याप्त, सुप्त, जन्म, स्थिति, वेद, संज्ञा, कषाय, आयु, ज्ञान, योग, उपयोग, शरीर, संस्थान, संहनन, मानशरीरपरिमाण, लेश्या, परिणाम, वेदना, समुद्घात, कर्म, निर्वेष्टन, उद्वृत्त, आश्रवकरण, अलंकार, शयनासन, स्थान, चंक्रमण, क्या और कहां।
५१०. सम्यक्त्वसामायिक तथा श्रुतसामायिक की प्राप्ति ऊर्ध्व, अधः और तिर्यक् - तीनों लोकों में होती है। विरतिसामायिक केवल मनुष्य लोक में तथा विरताविरति सामायिक तिर्यञ्चों में भी होती है।
५११. पूर्वप्रतिपन्नक की अपेक्षा से तीनों प्रकार की सामायिक नियमतः तीनों लोकों में प्राप्त होती है । चारित्रसामायिक नियमतः अधोलोक और तिर्यक्लोक में ही प्राप्त होती है। ऊर्ध्वलोक में उसकी प्राप्ति का विकल्प है - प्राप्त होती भी है और नहीं भी होती ।
१. अनुयोगद्वार की टीका और आवश्यक निर्युक्ति की हारिभद्रीय टीका (पृ. २२०) में 'सामाणिय' शब्द की संस्कृत छाया सामानिक की गयी है। मटी (प. ४३५) में इसकी संस्कृत छाया समानीत करके मलयगिरि में इसका अर्थ सन्निहित किया है। इस गाथा में संयम शब्द मूलगुण तथा नियम शब्द उत्तरगुण के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है।
२. वृत्तिकार कहते हैं - 'क्षेत्रनियमं तु विशिष्टश्रुतविदो विदन्ति' - यह क्षेत्रगत नियम केवल विशिष्ट श्रुतज्ञानी ही जानते हैं ( आवहाटी. १ पृ. २२१ ) ।
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