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________________ आवश्यक नियुक्ति २३९ ५१५. सम्यक्त्वसामायिक तथा श्रुतसामायिक की प्रतिपत्ति नियमत: चारों गतियों में होती है। समग्र चारित्रात्मिका विरति मनुष्यों में ही होती है। तिर्यञ्चों में विरताविरति अर्थात् देशचारित्रात्मिका विरति होती है। ५१६. भवसिद्धिक (भव्य) जीव चारों प्रकार की सामायिकों में से एक, दो, तीन अथवा चारों को स्वीकार कर सकता है। असंज्ञी, मिश्र तथा अभव्य-ये तीनों किसी भी सामायिक को स्वीकार नहीं करते। ५१७. उच्छ्वासक, नि:श्वासक अर्थात् आनापान पर्याप्ति से संपन्न प्राणी चारों सामायिकों का प्रतिपन्नक होता है। मिश्रक अर्थात् आनापान पर्याप्ति से अपर्याप्तक का इसमें प्रतिषेध है। वह पूर्वप्रतिपन्न की अपेक्षा से दो सामायिकों-सम्यक्त्वसामायिक तथा श्रुतसामायिक का प्रतिपन्नक होता है। दृष्टि के आधार पर विचार करने पर दो नय-व्यवहार और निश्चय से विचार होता है। ५१८. आहारक और पर्याप्तक जीव चारों सामायिकों में से कोई एक सामायिक को प्राप्त करता है। अनाहारक तथा अपर्याप्तक में सम्यक्त्वसामायिक तथा श्रुतसामायिक होती है। ५१९. निद्रा से तथा भाव से जागृत प्राणी में चारों सामायिकों में से कोई एक प्राप्त होती है। अंडज और पोतज प्राणी तीन सामायिकों के तथा जरायुज मनुष्य चारों सामायिकों के प्रतिपन्नक होते हैं। (औपपातिक जीव प्रथम दो-सम्यक्त्वसामायिक एवं श्रुतसामायिक के प्रतिपन्नक होते हैं।) ५२०. आयुष्य को छोड़कर शेष सात कर्मों की उत्कृष्ट स्थिति में जीव चारों सामायिकों का प्रतिपद्यमानक और प्रतिपन्नक नहीं होता। अजघन्य अनुत्कृष्ट अर्थात् कर्मों की मध्यम स्थिति में ही प्रतिपद्यमानक तथा प्रतिपन्नक-दोनों के चारों प्रकार की सामायिक का सद्भाव रहता है। ५२१. चारों प्रकार के सामायिकों की प्रतिपत्ति तीनों वेद तथा चारों संज्ञाओं में होती है। कषाय के प्रसंग में जितनी सामायिकों का वर्णन है, यहां भी वैसा ही समझना चाहिए। ५२२. संख्येय वर्ष की आयुष्य वाले मनुष्यों के चारों प्रकार की सामायिक की प्रतिपत्ति होती है। असंख्येय वर्षायुष्क वालों के सम्यक्त्वसामायिक और श्रुतसामायिक की भजना है। ओघ तथा विभाग से ज्ञानी चारों सामायिक की प्राप्ति कर सकता है। १. आवहाटी १ पृ. २२३; मिश्रके सिद्धे यतोऽसौ न संज्ञी नाप्यसंज्ञी, न भव्यो नाप्यभव्यः अतो मिश्रः-न संज्ञी न असंज्ञी, न भव्य और न अभव्य अर्थात् सिद्ध। विस्तार के लिए देखें श्रीभिक्षु आगमविषय कोश पृ. ६९८।। २. प्रतिपद्यमानक तथा प्रतिपन्नक सकषायी के चारों प्रकार की सामायिक तथा अकषायी छद्मस्थ वीतराग तीन प्रकार की सामायिकों का पूर्वप्रतिपन्नक होता है, प्रतिपद्यमानक नहीं होता (आवहाटी. १ पृ. २२४)। ३. ओघ का अर्थ है-सामान्य ज्ञानी (आवहाटी. १ पृ. २२४)। ४. विभाग से अर्थात् आभिनिबोधिक तथा श्रुतज्ञानी एक साथ सम्यक्त्वसामायिक और श्रुतसामायिक को, अवधिज्ञानी पूर्व प्रतिपन्नक की अपेक्षा सम्यक्त्वसामायिक, श्रुतसामायिक तथा सर्वविरतिसामायिक को, मन:पर्यवज्ञानी पूर्वप्रतिपन्नक की अपेक्षा देशविरतिरहित तीन सामायिकों को, भवस्थ केवली पूर्व प्रतिपन्नक की अपेक्षा सम्यक्त्व सामायिक तथा चारित्रसामायिक को प्राप्त करता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001927
Book TitleAgam 40 Mool 01 Aavashyak Sutra Part 01
Original Sutra AuthorBhadrabahuswami
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2001
Total Pages592
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, & agam_aavashyak
File Size11 MB
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