________________
२३४
आवश्यक नियुक्ति ४८७/२. महावीर की ज्येष्ठा भगिनी सुदर्शना का पुत्र जमालि तथा भगवान की पुत्री अनवद्यांगी (प्रियदर्शना) डेढ़ हजार व्यक्तियों के साथ प्रव्रजित हुए। श्रावस्ती नगरी के तिंदुक उद्यान में जमालि विप्रतिपन्न हुआ। ढंक श्रावक ने प्रतिबोध दिया। जमालि को छोडकर सदर्शना महावीर के शासन में आ गई। ४८७/३. भगवान् महावीर की कैवल्य-प्राप्ति के सोलह वर्ष पश्चात् ऋषभपुर नगर में जीवप्रादेशिकवाद की उत्पत्ति हुई। ४८७/४. राजगृह नगर के गुणशील चैत्य में चतुर्दशपूर्वी आचार्य वसु का आगमन हुआ। उनका शिष्य तिष्यगुप्त आचार्य को छोड़कर आमलकल्पा नगरी में आया। वहां मित्रश्री नामक श्रमणोपासक ने कूर पिंड आदि का अंतिम अंश देकर प्रतिबोध दिया। ४८७/५. भगवान् महावीर की सिद्धि-प्राप्ति के दो सौ चौदह वर्ष पश्चात् श्वेतविका नगरी में अव्यक्तवाद की उत्पत्ति हुई। ४८७/६. श्वेतविका नगरी के पोलास उद्यान में आर्य आषाढ का प्रवास था। उनके शिष्य आगाढयोगप्रतिपन्न थे। आचार्य हृदयशूल की पीड़ा में अचानक कालगत हो गए। वे सौधर्म देवलोक के नलिनीगुल्म विमान में उत्पन्न हुए। उनके शिष्यों को राजगृह नगर में मौर्यवंशी बलभद्र नामक राजा ने प्रतिबोध दिया। ४८७/७. भगवान् महावीर की सिद्धि-प्राप्ति के दो सौ बीस वर्ष पश्चात् मिथिला नगरी में सामुच्छेदवाद की उत्पत्ति हुई। ४८७/८. मिथिला नगरी के लक्ष्मीगृह चैत्य में आचार्य महागिरि और उनका शिष्य कौंडिन्न। उसका शिष्य अश्वमित्र। अनुप्रवादपूर्व की नैपुणिक वस्तु की वाचना। राजगृह में खंडरक्ष आरक्षक श्रमणोपासकों द्वारा प्रतिबोध।
४८७/९. भगवान् महावीर की सिद्धि-प्राप्ति के दो सौ अठाईस वर्ष के पश्चात् उल्लुकातीर नगरी में द्विक्रियवाद की उत्पत्ति हुई। ४८७/१०. नदीखेट जनपद के उल्लुकातीर नगरी में आचार्य महागिरि का शिष्य धनगुप्त । उनका शिष्य आर्य गंग। नदी में उतरते हुए उसने द्विक्रियवाद की प्ररूपणा की। राजगृह में आगमन। महातपस्तीर से उद्भूत झरना। मणिनाग नामक नागदेव द्वारा प्रतिबोध । ४८७/११. भगवान् महावीर की सिद्धि-प्राप्ति के पांच सौ चौवालीस वर्ष के पश्चात् अंतरंजिका नगरी में त्रैराशिकवाद की उत्पत्ति हुई। ४८७/१२. अंतरंजिका नगरी में भूतगृह नामक चैत्य। बलश्री राजा। श्रीगुप्त आचार्य। रोहगुप्त शिष्य। परिव्राजक पोट्टशाल। घोषणा। प्रतिषेध। वाद के लिए ललकारना।
१-५. जमालि आदि निह्नवों की कथा हेतु देखें नियुक्तिपंचक परि. ६ पृ. ५४६-५४९ ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org