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________________ आवश्यक नियुक्ति २३५ ४८७/१३. परिव्राजक वृश्चिक, सर्प, मूषक, मृगी, वराही, काकी और पोताकी-इन विद्याओं में कुशल था। ४८७/१४. तब आचार्य ने अपने शिष्य से कहा-तुम मायूरी, नाकुली, विडाली, व्याघ्री, सिंही, उलूकी तथा उल्लावकी-इन विद्याओं को ग्रहण करो। ये विद्याएं परिव्राजक द्वारा प्रयुक्त विद्याओं की प्रतिपक्षी हैं तथा उसके द्वारा अहननीय हैं। ४८७/१५. परिव्राजक वाद में पराजित हो गया। राजा ने उसे देश से निष्कासित कर दिया और नगर में यह घोषणा करवा दी कि जिनेश्वर भगवान् वर्द्धमान की विजय हो' (अर्थात् अर्हत् परंपरा के मुनि की जीत हुई है।) ४८७/१६. भगवान् महावीर की सिद्धि-प्राप्ति के पांच सौ चौरासी वर्ष के पश्चात् अबद्धिकवाद की उत्पत्ति हुई। ४८७/१७. दशपुर नगर के इक्षुगृह में आर्यरक्षित अपने घृतपुष्यमित्र, वस्त्रमित्र, दुर्बलिकापुष्यमित्र, गोष्ठामाहिल आदि शिष्यों के साथ विराजमान । आठवें तथा नवें पूर्व की वाचना। विंध्य द्वारा जिज्ञासा। ४८७/१८. जैसे कंचुकी पहने हुए पुरुष से कंचुकी स्पृष्ट होने पर भी बद्ध नहीं है, वैसे ही कर्म जीव से स्पृष्ट होने पर भी बद्ध नहीं होते। ४८७/१९. जो प्रत्याख्यान अपरिमाण अर्थात् तीन करण तीन योग से यावज्जीवन के लिए किया जाता है, वह श्रेयस्कर है। परिमित समय के लिए किया गया प्रत्याख्यान आशंसा दोष से दूषित होता है। ४८७/२०. भगवान् महावीर की सिद्धि-प्राप्ति के ६०९ वर्ष के पश्चात् रथवीरपुर नगर में बोटिकवाद की उत्पत्ति हुई। ४८७/२१. रथवीरपुर नगर के दीपक उद्यान में आचार्य कृष्ण के पास शिवभूति ने दीक्षा स्वीकार की। गुरु से जिनकल्प संबंधी उपधि का विवेचन सुनकर शिवभूति द्वारा जिज्ञासा करने पर गुरु ने समाधान दिया। ४८७/२२, २३. गुरु द्वारा प्रज्ञप्त सिद्धान्त पर उसे विश्वास नहीं हुआ। रथवीरपुर नगर में शिवभूति द्वारा बोटिक नामक मिथ्यादृष्टि का प्रवर्तन हुआ। उसके कौंडिन्य और कोट्टवीर नामक दो शिष्य हुए। यह परम्परा आगे भी चली। ४८८. इस अवसर्पिणी काल के सात निह्नवों का कथन किया गया है। ये सातों निह्नव भगवान् महावीर के तीर्थ में हुए हैं। शेष तीर्थंकरों के तीर्थ में कोई निह्नव नहीं हुआ। ४८९. इनमें से एक गोष्ठामाहिल निह्नव के अतिरिक्त शेष सभी निह्नवों की प्रत्याख्यान संबंधी दृष्टि १-३. इनकी विस्तृत कथा हेतु देखें नियुक्तिपंचक परि. ६ पृ. ५५०-५५४। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001927
Book TitleAgam 40 Mool 01 Aavashyak Sutra Part 01
Original Sutra AuthorBhadrabahuswami
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2001
Total Pages592
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, & agam_aavashyak
File Size11 MB
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