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________________ २३२ आवश्यक नियुक्ति ४७१. एक वस्तु के नाम का अन्य वस्तु में संक्रमण करने पर वह अवस्तु हो जाती है, यह समभिरूढ नय है। एवंभूतनय व्यंजन अर्थात् शब्द को अर्थ से तथा अर्थ को शब्द से विशेषित करता है। ४७२. प्रत्येक नय के सौ-सौ भेद हैं। इस प्रकार नयों की संख्या सात सौ हो जाती है। एक अन्य मत के अनुसार नयों के पांच सौ प्रकार हैं। ४७३. इन नैगम आदि नयों के आधार पर दृष्टिवाद में प्ररूपणा की गई है तथा इन्हीं के आधार पर सूत्रार्थ का कथन किया गया है। यहां अर्थात् कालिकश्रुत में नयों से व्याख्या करना आवश्यक नहीं है। नयों के आधार पर व्याख्या करनी हो तो प्रायः प्रथम तीन नयों से ही करनी चाहिए। ४७४. जिनेश्वर देव के मत में कोई भी सूत्र और अर्थ नयविहीन नहीं होता। नयविशारद गुरु श्रोताओं की अपेक्षा से ही नयों का प्रयोग करे। ४७५. कालिकश्रुत मूढनयिक' है। वहां प्रतिपद पर नयों का समवतार नहीं होता। अपृथक्त्व-अनुयोग में नयों का समवतार होता है, पृथक्त्वानुयोग में उनका समवतार नहीं होता। ४७६. आर्यवज्र तक कालिकानुयोग का अपृथक्त्व-अनुयोग था। उनके पश्चात् कालिकश्रुत तथा दृष्टिवाद में पृथक्त्वानुयोग का प्रवर्तन हुआ। ४७६/१. तुंबवन सन्निवेश से निर्गत आर्यवज्र का पिता के साथ रहना। छह महीने की उम्र में उसे मुनियों को दे देना। मातृकापद से समन्वित तथा षड्जीवनिकाय के प्रति यतनावान् आर्यवज्र को मैं वंदना करता हूं। ४७६/२. गुह्यक देवों ने बाल मुनि को बरसती वर्षा में भोजन का निमंत्रण दिया। बालमुनि ने इन्कार कर दिया, उन विनीतविनय वज्र ऋषि को मैं नमस्कार करता हूं। ४७६/३. मुंभक देवों ने उज्जयिनी में जिनकी परीक्षा कर स्तुति की तथा विद्यादान से पूजा की, उन अक्षीण-महानसिक लब्धिसंपन्न तथा आचार्य सिंहगिरि से प्रशंसित आर्यवज्र को वंदन करता हूं। ४७६/४. दशपुर नगर में जिसका वाचकपद अनुज्ञात होने पर जृम्भक देवों द्वारा महिमा की गयी, उन पदानुसारी विद्या के ज्ञाता आचार्य वज्र को मैं नमस्कार करता हूं। ४७६/५. कुसुमपुर (पाटलिपुत्र) नगर में गृहपति धन द्वारा कन्या और धन स्वीकार करने के लिए प्रार्थना करने पर भी यौवनस्थ वज्र ने उसे अस्वीकार कर दिया, मैं उन वज्र ऋषि को नमस्कार करता हूं। १. समभिरूढ नय शब्द की एकार्थता को अस्वीकार करता है। उसके अनुसार घट नामक वस्तु में कुट का संक्रमण करने से वह घट नहीं रहेगा। जैसे घट, कुट और कुम्भ एकार्थक होते हुए भी भिन्न-भिन्न प्रवृत्ति से युक्त होने के कारण भिन्न-भिन्न अर्थ के वाचक हैं। किसी महिला के मस्तक पर जल-आहरण की क्रिया में परिणत घट को ही घट शब्द के द्वारा वाच्य किया जा सकता है (विस्तार हेतु देखें आवहाटी. १ पृ. १९०)।। २. आवचू. १ पृ. ३७९; तिन्नि वि सद्दनया एगो चेव तेण पंचसया.....एत्थ एक्केक्को उ सयभेद इति पंचसया। तीन शब्द नयों को एक मानने से प्रत्येक नय के सौ-सौ भेद करने पर नय के पांच सौ भेद होते हैं। ३. आवचू. १ पृ. ३८० ; मूढा अविभागत्था गुप्ता नया जम्मि अत्थि तं मूढणतियं। अविभक्त नय जिसमें हो, वह मूढनयिक है। ४. देखें परि. ३ कथाएं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001927
Book TitleAgam 40 Mool 01 Aavashyak Sutra Part 01
Original Sutra AuthorBhadrabahuswami
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2001
Total Pages592
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, & agam_aavashyak
File Size11 MB
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