SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 290
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ आवश्यक नियुक्ति २३१ ४५९. वह उपलब्धि प्रवृत्ति और निवृत्ति का निमित्त बनती है। यह निमित्त संयम और तप का कारण होता है। इससे पापकर्म का अग्रहण, उससे कर्मविवेक तथा उससे अशरीरता उपलब्ध होती है। ४६०. कर्म-विवेक अशरीरता का कारण है। अशरीरता अनाबाधा का कारण है। अनाबाधा का निमित्त अथवा कार्य है-अवेदन । अवेदन से जीव अनाकुल और नीरुज होता है। ४६१. जीव नीरुजता से अचल और अचलता से शाश्वत होता है। शाश्वतभाव को प्राप्त जीव अव्याबाध सुख को प्राप्त करता है। ४६२. प्रत्यय शब्द के चार निक्षेप हैं-नामप्रत्यय, स्थापनाप्रत्यय, द्रव्यप्रत्यय और भावप्रत्यय । द्रव्यप्रत्यय है-तप्तमाषक आदि। भावप्रत्यय है-अवधि आदि तीन प्रत्यक्षज्ञान । प्रस्तुत में भावप्रत्यय का प्रसंग है। ४६३. 'मैं केवलज्ञानी हूं'-इस प्रत्यय से अर्हत् सामायिक का कथन करते हैं। सुनने वालों को यह प्रत्यय होता है कि 'ये सर्वज्ञ हैं, इसलिए वे सुनते हैं। ४६४-४६६. लक्षण के तेरह निक्षेप हैं-नाम, स्थापना, द्रव्य, सादृश्य, सामान्य, आकार, गत्यागति', नानात्व, निमित्त, उत्पाद, विगम, वीर्य तथा भाव। लक्षणों का यह संक्षिप्त वर्णन है। भावलक्षण के चार प्रकार हैं-श्रद्धान, ज्ञान, विरति, विरताविरति। सामायिक के चार प्रकार हैं-सम्यक्त्व सामायिक, श्रुत सामायिक, चारित्र सामायिक तथा चारित्राचारित्र सामायिक। सामायिक के इस कथन को गणधर आदि सुनते हैं और यह प्रत्यय करते हैं कि सामायिक चार लक्षणों से संयुक्त ही होता है। ४६७. मूल नय सात प्रकार के हैं-नैगम, संग्रह, व्यवहार, ऋजुसूत्र, शब्द, समभिरूढ तथा एवंभूत। ४६८. जो एक प्रमाण से पदार्थ का परिच्छेद नहीं करता किन्तु अनेक निगमों (पदार्थ-परिच्छेदकों से) पदार्थ का मान करता है, वह नैगम है। यह नैगम शब्द का निरुक्त है। अब मैं शेष नयों का लक्षण कहूंगा, तुम सुनो। ४६९. संगृहीत तथा पिंडितार्थ का संक्षेप कथन है-संग्रहनय। व्यवहारनय समस्त द्रव्यों का विनिश्चयार्थ (सामान्य अवबोध) की प्राप्ति कराता है। ४७०. जो प्रत्युत्पन्नग्राही अर्थात् वर्तमानग्राही होता है, वह ऋजुसूत्र नयविधि है। शब्दनय विशेषिततर रूप से वर्तमान को ग्रहण करता है। १. आवहाटी. १ पृ. १८८ : गत्यागतिलक्षणं-तच्चतुर्धा-पूर्वपदव्याहतमुत्तरपदव्याहतमुभयपदव्याहतमुभयपदाव्याहतमिति गत्यागति लक्षण चार प्रकार का है-१. पूर्वपदव्याहत २. उत्तरपदव्याहत ३. उभयपदव्याहत ४. उभयपदअव्याहत । २. श्रद्धान-सम्यक्त्वसामायिक का, ज्ञान-श्रुतसामायिक का, विरति-चारित्रसामायिक का तथा विरताविरति-चारित्राचारित्र सामायिक का लक्षण है। ३. विशेषिततर-शब्दनय वर्तमानग्राही होता है परन्तु वह नाम, स्थापना, द्रव्य आदि से रहित समान लिंग, वचन, पर्याय तथा ध्वनि के आधार पर वर्तमान को ग्रहण करता है। वह मानता है कि नामकुंभ, स्थापनाकुंभ, द्रव्यकुंभ आदि कुछ नहीं होते। ये अकार्यकर हैं। भिन्नलिंग और भिन्नवचन वाले भी एक नहीं होते। केवल स्वपर्याय ध्वनि से वाच्य ही एक होते हैं (आवहाटी. १ पृ. १८९)। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001927
Book TitleAgam 40 Mool 01 Aavashyak Sutra Part 01
Original Sutra AuthorBhadrabahuswami
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2001
Total Pages592
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, & agam_aavashyak
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy