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________________ २३० आवश्यक नियुक्ति ४४६. प्रस्तुत प्रसंग में प्रमाणकाल का प्रयोजन है। शिष्य ने पूछा- 'जिनेश्वर देव ने किस क्षेत्र और काल में सामायिक की प्ररूपणा की?' ४४७. वैशाख शुक्ला एकादशी को प्रथम पौरुषी में, महासेनवन उद्यान क्षेत्र में, सामायिक का अनन्तर निर्गम हुआ और शेष क्षेत्रों की अपेक्षा से उसका परंपर निर्गम हुआ। ४४८. क्षायिक भाव में वर्तमान जिनेन्द्र भगवान् से श्रुत का निर्गम हुआ और क्षायोपशमिक भाव में वर्तमान गणधर आदि ने उसका ग्रहण किया। ४४९. पुरुष शब्द के निम्न निक्षेप हैं-द्रव्यपुरुष, अभिलापपुरुष, चिह्नपुरुष, वेदपुरुष, धर्मपुरुष, अर्थपुरुष, भोगपुरुष, भावपुरुष। भावपुरुष जीव है। च शब्द से नाम और स्थापना पुरुष को जानना चाहिए। यहां भावपुरुष अर्थात् शुद्धजीव-तीर्थंकर का प्रसंग है। ४५०. कारण शब्द के चार निक्षेप हैं । द्रव्य कारण के दो प्रकार हैं-तद्-द्रव्यकारण तथा अन्य-द्रव्यकारण अथवा निमित्तकारण और नैमित्तिककारण। ४५१. कारण के दो प्रकार हैं-समवायिकारण, असमवायिकारण। कारण के छह प्रकार ये हैं-कर्त्ताकारण, कर्मकारण, करणकारण, संप्रदानकारण, अपादानकारण तथा सन्निधान कारण। (ये सारे द्रव्य कारण हैं।) ४५२. भावकारण के दो प्रकार हैं-अप्रशस्त तथा प्रशस्त । अप्रशस्त भावकारण संसार से संबंधित होता है। वह एक प्रकार का, दो प्रकार का अथवा तीन प्रकार का जानना चाहिए। ४५३. संसार के एक कारण में असंयम, दो कारणों में अज्ञान और अविरति तथा तीन कारणों में अज्ञान, अविरति और मिथ्यात्व आते हैं। ४५४. प्रशस्त भावकारण मोक्ष से संबंधित होता है। वह भी एक, दो अथवा तीन प्रकार का है। वह संसार से संबंधित कारणों से विपरीत है। यहां प्रशस्त भावकारण का अधिकार है। ४५५. तीर्थंकर सामायिक अध्ययन का निरूपण किस कारण से करते है ? (वे सोचते हैं) मुझे तीर्थंकरनामगोत्र कर्म का वेदन करना है। (इस कारण से वे सामायिक का निरूपण करते हैं।) ४५६. तीर्थंकरनामकर्म का वेदन कैसे होता है ? अग्लानभाव से धर्मदेशना आदि करने से उसका वेदन होता है। तीर्थंकर इस कर्म का बंधन पूर्ववर्ती तीसरे भव की स्थिति का अवसर्पण होने पर करते हैं। ४५७. नियमतः तीर्थंकरनामकर्म का बंधन उन शुभ लेश्या वाले स्त्री, पुरुष अथवा नपुंसक के होता है, जिन्होंने तीर्थंकरनामगोत्र कर्मबंध के बीस स्थानों में से किन्हीं स्थानों का बहुलता से स्पर्श किया हो। ४५८. गौतम आदि गणधर सामायिक क्यों सुनते हैं? वे ज्ञान के लिए तथा सुंदर और मंगुल भावों की उपलब्धि के लिए सुनते हैं। १. आवहाटी. १ पृ.१८५ ; स्वेन व्यापारेण कार्ये यदुपयुज्यते तत्कारणम्-अपने व्यापार से जो कार्य में उपयुक्त होता है, वह कारण है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001927
Book TitleAgam 40 Mool 01 Aavashyak Sutra Part 01
Original Sutra AuthorBhadrabahuswami
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2001
Total Pages592
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, & agam_aavashyak
File Size11 MB
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