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आवश्यक नियुक्ति
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अथवा प्रयोजन की परिसमाप्ति हो जाने पर उसे याद दिलाना चाहिए कि प्रयोजन समाप्त हो गया है अतः उसका परित्याग कर देना है।
४३६/५५. मुनि को अपने तीसरे महाव्रत की रक्षा के लिए दूसरों के अदत्त अवग्रह - स्थान आदि में स्वल्प काल के लिए कायोत्सर्ग करना या बैठना भी नहीं कल्पता ।
४३६/५६, ५७. संयम और तप को वृद्धिंगत करने वाले निर्ग्रन्थ महर्षियों की दसविध सामाचारी का यह संक्षिप्त कथन है। चरणकरण में संयुक्त मुनि इस सामाचारी का परिपालन करते हुए अनेक भवों में संचित अनंत कर्मों का क्षय कर देते हैं।
४३७. आयुष्य - भेदन के सात कारण हैं- १. अध्यवसान २ निमित्त ३. आहार ४. वेदना ५. पराघात ६. स्पर्श - सर्प आदि का ७. आनापान निरोध ।
४३८, ४३९. दंड, कश, शस्त्र, रज्जु, अग्नि, उदक में डूबना, विष, सर्प, शीत, उष्ण, अरति, भय, क्षुधा, पिपासा, व्याधि, मल-मूत्र का निरोध, अधिक भोजन, अजीर्ण, बहुधा घर्षण, घोलन, पीड़न - ये भी आयुष्य - उपक्रम के हेतु हैं ।
४४०.
• निर्धूमक ग्राम, शून्य महिलास्तूप अर्थात् कूपतट तथा घरों के नीचे उड़ते हुए कौओं को देखकर भिक्षा की बेला को जान जाना। (यह प्रशस्त देश - काल का स्वरूप है ।)
४४१. निर्माक्षिक मधु, प्रकट निधि, शून्य मिठाई की दुकान तथा आंगन में सोई हुई मत्त प्रोषितपतिका नारी । ( यह अप्रशस्त देश - काल का स्वरूप है ।)
४४२. हमारे स्वाध्याय के देश-काल में कुत्ता मर गया। उसने हमारे स्वाध्याय-काल का हनन कर डाला क्योंकि उसने अकाल में काल किया है। (यह काल-काल अर्थात् मरणकाल का स्वरूप है ।)
४४३. प्रमाण-काल के दो प्रकार हैं- १. दिवस प्रमाण-काल- चतुः पौरुषिक दिवस, २. रात्रि प्रमाणकाल - चतुः पौरुषिक रात्रि
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४४४. पांच वर्णों में जो वर्ण से कृष्ण वर्ण वाला है, वह वर्णकाल है अथवा जो पदार्थ जिस काल में प्ररूपित होता है, वह उसका वर्णकाल है।
४४५. औदारिक आदि भावों का जो काल है, वह भावकाल है। उसके चार विकल्प हैं
३. अनादि सपर्यवसान ।
१. सादि सपर्यवसान । २. सादि अपर्यवसान ।
४. अनादि अपर्यवसान ।
१. १. अध्यवसान - राग, द्वेष, भय आदि निषेधात्मक अध्यवसाय ।
२. निमित्त - दण्ड, शस्त्र आदि का प्रहार ।
३. आहार - अत्यल्प या अधिक मात्रा में भोजन अथवा प्रतिकूल भोजन ।
४. वेदना - आंख, कान आदि की पीड़ा।
५. पराघात - गड्ढे आदि में गिरना ।
६. स्पर्श - सांप आदि से डसा जाना ।
७. आनापान निरोध- श्वास- निःश्वास का निरोध (आवहाटी. १ पृ. १८१ ) ।
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