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________________ २२८ हैं। वे न अतिदूर और न अतिनिकट स्थित होकर गुरु- वचन को सुनते हैं। ४३६/४१-४३. श्रोता निद्रा और विकथा का परिवर्जन कर, गुप्तेन्द्रिय होकर, हाथ जोड़कर, भक्ति और बहुमानपूर्वक, तल्लीन होकर सुने । श्रोता गुरु के अर्थसारयुक्त तथा सुभाषित वचनों की निरन्तर आकांक्षा करता हुआ, विस्मितमुख से स्वयं हर्षित होकर, दूसरों में हर्ष पैदा करता हुआ सुने। शिष्य अपने विनय और गुरुभक्ति से गुरु को परितुष्ट कर ईप्सित सूत्र और अर्थ का शीघ्र पार पा जाते हैं । ४३६/४४. मुनि व्याख्यान की समाप्ति होने पर कायिकी आदि योग को संपादित करके, ज्येष्ठ मुनियों को वंदना करते हैं। कुछ आचार्य कहते हैं कि व्याख्यान के प्रारम्भ में ही ज्येष्ठ को वंदना करते हैं । आवश्यक नियुक्ति ४३६/४५. शिष्य कहता है - 'यदि कोई ज्येष्ठ सूत्रार्थ धारण में विफल हो, व्याख्यान की लब्धि से शून्य हो तो उसको वंदना करना निरर्थक है । ' ४३६/४६. यहां अवस्था और संयमपर्याय से छोटा मुनि, जो व्याख्याता है, उसे ज्येष्ठ माना गया है। भंते! रत्नाधिक मुनि यदि उसे वंदना करते हैं तो क्या यह उनकी आशातना नहीं है ? ४३६/४७. कोई मुनि यदि वय और संयम - पर्याय में लघु है किन्तु सूत्रार्थ के धारण में निपुण है, व्याख्यान की लब्धि से सम्पन्न है, वह यहां ज्येष्ठ रूप में गृहीत है। ४३६/४८. जिनवचन के व्याख्याता मुनि को उस गुण के कारण यदि रत्नाधिक मुनि वंदना करते हैं तो वह आशातना नहीं है। ४३६/४९. निश्चय नय के अनुसार वंदनविधि में न अवस्था प्रमाण होती है और न संयम पर्याय प्रमाण होता है । किन्तु व्यवहार नय के अनुसार यह उपयुक्त है अतः उभयनय युक्त मत ही प्रमाण है। ४३६/५०. निश्चयतः यह जानना कठिन है कि कौन श्रमण किस भाव (प्रशस्त या अप्रशस्त ) में अवस्थित है । व्यवहार से तो यह माना जाता है कि जो पहले प्रव्रजित है, वही वन्दनीय है। ४३६/५१. प्रस्तुत प्रसंग में तीर्थंकर का वचन यह है कि जो भाषक (जिनवाणी का व्याख्याता) है, वही ज्येष्ठ है। उसी के प्रति कृतिकर्म-वन्दनविधि का कथन है। उसके प्रति ऐसा नहीं करना सूत्र की आशातना आदि अनेक दोषों की उद्भावना करना है। ४३६/५२. चारित्रविषयक उपसंपदा दो प्रकार की है— वैयावृत्त्य विषयक और क्षपण विषयक। अपने गच्छ से दूसरे गच्छ में जाने के अवसीदन आदि दोष कारण हैं। ४३६/५३. वैयावृत्त्य उपसंपदा के दो प्रकार हैं- इत्वरिक और यावत्कथिक । क्षपण उपसंपदा के भी ये ही दो प्रकार हैं। इत्वरिक क्षपक के दो प्रकार हैं- अविकृष्ट तप अर्थात् तेले-तेले की तपस्या करने वाला तथा विकृष्ट तप अर्थात् उपवास या बेले-तेले की तपस्या करने वाला । आचार्य गच्छ को पूछकर उसे क्षपण उपसंपदा दे। ४३६/५४. मुनि जिस प्रयोजन से उपसंपदा स्वीकार करता है, वह यदि उस प्रयोजन के अनुसार कार्य नहीं करता है तो उसे उस प्रयोजन के लिए प्रेरित करना चाहिए अथवा अविनीत का परित्याग कर देना चाहिए। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001927
Book TitleAgam 40 Mool 01 Aavashyak Sutra Part 01
Original Sutra AuthorBhadrabahuswami
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2001
Total Pages592
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, & agam_aavashyak
File Size11 MB
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