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________________ आवश्यक नियुक्ति २२७ पुनः पूछना 'प्रतिपृच्छा' है। पूर्व आनीत आहार आदि दूसरे मुनियों को देने की इच्छा 'छंदना' तथा अशन आदि अगृहीत दूसरे मुनियों को आहार आदि लाकर देने की भावना निमंत्रणा' है। ४३६/३२, ३३. उपसंपदा के तीन प्रकार हैं-ज्ञान उपसंपदा, दर्शन उपसंपदा तथा चारित्र उपसंपदा। ज्ञान तथा दर्शन की उपसंपदा के तीन-तीन प्रकार हैं-वर्तना, संधना और ग्रहण। चारित्र की उपसम्पदा दो प्रकार की है-१.वैयावत्त्य विषयक२.क्षपण-तपस्या विषयका यह उपसम्पदा यावत्कथिक और इत्वरिक दोनों प्रकार की होती है। वर्तना, संधना और ग्रहण-ये तीनों तीन-तीन प्रकार की होती हैं। सूत्रनिमित्तक, अर्थनिमित्तक और तदुभयनिमित्तक। इस प्रकार ज्ञान और दर्शन उपसंपदा के नौ-नौ भेद हो जाते हैं। ४३६/३४. उपसंपदा देने से सम्बन्धित चार विकल्प हैं:१. संदिष्ट संदिष्ट का २. संदिष्ट असंदिष्ट का ३. असंदिष्ट संदिष्ट का ४. असंदिष्ट असंदिष्ट का इस चतुर्भगी में प्रथम भंग शुद्ध है अर्थात् आचार्य द्वारा संदिष्ट व्यक्ति को उपसंपदा देनी चाहिए। ४३६/३५,३६. पूर्व गृहीत सूत्र आदि के अस्थिर हो जाने पर पुनः स्थिर करना वर्तना है। उसी सूत्रार्थ के कुछ अंश की विस्मृति हो जाने पर पुनः योजित करना संधना है। सूत्र, अर्थ आदि को नए रूप में सीखना 'ग्रहण' है। अर्थ-ग्रहण में भी प्राय: यही विधि ज्ञातव्य है। ४३६/३७. अर्थग्रहण विधि के द्वार ये हैं-प्रमार्जन, निषद्या, अक्ष, कृतिकर्म, कायोत्सर्ग और ज्येष्ठवंदन। यहां पर्याय ज्येष्ठ विवक्षित नहीं है। भाषक (वाचक) को ज्येष्ठ कहा गया है, वही वंदनीय है। ४३६/३८. स्थान का प्रमार्जन कर दो निषद्या करनी चाहिए। एक गुरु के लिए और दूसरी अक्ष-गुरु की उपधि रखने के लिए। ४३६/३९. व्याख्यानमंडली में गुरु के योग्य दो मात्रक रखने चाहिए-एक श्लेष्म आदि के लिए तथा दूसरा कायिकी (प्रस्रवण) के लिए । व्याख्यानमंडली में जितने शिष्य वाचना सुनते हैं, वे सभी द्वादशावर्त से वन्दना करते हैं। ४३६/४०. अनुयोग को प्राप्त करने के इच्छुक सभी श्रोता कायोत्सर्ग करते हैं। वे गुरु को पुनः वंदना करते १. संदिष्ट-संदिष्ट-आचार्य द्वारा अनुज्ञात आचार्य की उपसंपदा स्वीकार करना। संदिष्ट-असंदिष्ट-आचार्य द्वारा अनुज्ञात आचार्य की उपसंपदा स्वीकार न कर दूसरे आचार्य की उपसंपदा स्वीकार करना। असंदिष्ट-संदिष्ट--अभी उन आचार्य के पास नहीं जाना है, अमुक के पास जाना है। असंदिष्ट-असंदिष्ट---तुम्हें न अभी जाना है, न अमुक के पास जाना है। इनमें प्रथम विकल्प शुद्ध है। शेष तीनों में असामाचारी का वर्तन होता है पर गण की अव्यवच्छित्ति के निमित्त से दूसरे विकल्प भी प्रयोजनीय हैं। २. बृभाटी. पृ. ४५५ ; अक्षान् गुरूणामुत्कृष्टोपधिरूपान्। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001927
Book TitleAgam 40 Mool 01 Aavashyak Sutra Part 01
Original Sutra AuthorBhadrabahuswami
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2001
Total Pages592
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, & agam_aavashyak
File Size11 MB
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