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________________ २२६ आवश्यक नियुक्ति ४३६/१९. जिस आचरण को मिथ्या मानकर 'मिथ्यादुष्कृत' किया है, उस मिथ्या आचरण के कारण को जो पुन: नहीं दोहराता तथा तीन करण तीन योग से प्रतिक्रान्त होता है, उसी का दुष्कृत मिथ्या होता है। ४३६/२०. जिस पापानुष्ठान के लिए 'मिथ्यादुष्कृत' किया है, उस पापानुष्ठान का जो पुनः सेवन करता है, वह प्रत्यक्ष ही मृषावादी है। वहां माया और कपट का प्रसंग होता है। ४३६/२१,२२. 'मिच्छामि दुक्कडं' पद की व्याख्या- 'मि' का अर्थ है-मृदुता, मार्दवता (मृदुता अर्थात् काया की ऋजुता और मार्दवता अर्थात् भावों की ऋजुता), 'छ' अर्थात् दोषों का स्थगन, 'मि' का अर्थ है-चारित्र रूपी मर्यादा में स्थित होना, 'दु' का अर्थ है-दुष्कृतकारी अपनी आत्मा की निन्दा करना, 'क्क' का अर्थ है-मैंने पापानुष्ठान किया है, 'ड' का अर्थ है-उसका उपशम से अतिक्रमण करता हूं। यह 'मिच्छामि दुक्कडं' -मिथ्यादुष्कृत पद का संक्षेप में अक्षरार्थ है। [मैं काया और भावों की ऋजुता से असंयम को आच्छादित-स्थगित कर, मर्यादा में स्थित हूं। मैंने जो पापानुष्ठान किया है, उसकी निन्दा करता हूं और उसका उपशम के द्वारा अतिक्रमण करता हूं।] ४३६/२३. जो कल्प और अकल्प अर्थात् विधि और निषेध का पूर्ण ज्ञाता है, जो पांच महाव्रतों में स्थित है तथा जो संयम और तप से संपन्न है, उसके प्रति निर्विकल्प रूप से तथाकार का प्रयोग करना चाहिए। ४३६/२४. मुनि गुरु से वाचना को सुनते समय, उपदेश के समय तथा सूत्रार्थ के कथन में अथवा गुरु कोई बात कहे, तब शिष्य 'तथाकार' अर्थात् आप जो कह रहे हैं, वह अवितथ है, ऐसा कहे। ४३६/२५. जो इच्छाकार, मिथ्याकार तथा तथाकार से परिचित है, इनमें निपुण है, उसके सुगति दुर्लभ नहीं होती। ४३६/२६. शिष्य ने पूछा-उपाश्रय से बाहर जाते हुए 'आवश्यिकी' और उपाश्रय में आते हुए ‘नषेधिकी' करना चाहिए। हे गणिवर! इन दोनों के विषय में सूक्ष्मता से मैं आपके पास जानना चाहता हूं। ४३६/२७. आचार्य ने कहा-बाहर जाते हुए ‘आवश्यिकी' और आते हुए ‘नषेधिकी' ये शब्द रूप में दो हैं पर दोनों का अर्थ एक ही है। ४३६/२८. जो मुनि एक आलम्बन पर स्थित है, प्रशान्त है, वह एक स्थान पर रहता है तो उसके ईर्यादि से होने वाले दोष नहीं होते। उसके स्वाध्याय, ध्यान आदि गुण निष्पन्न होते हैं किन्तु ग्लान आदि का कारण उपस्थित होने पर उसे अवश्य गमनागमन करना चाहिए। उसके 'आवश्यिकी' सामाचारी होती है। ४३६/२९. जो प्रतिक्रमण आदि सभी योगों से युक्त है, उसके आवश्यिकी होती है तथा जो मन, वचन और काय तथा इन्द्रियों से गुप्त है, उसके भी 'आवश्यिकी' होती है। ४३६/३०. मुनि जहां सोता है, कायोत्सर्ग आदि करता है, वहां नैषेधिकी होती है। उस विशिष्ट स्थिति वाली क्रिया में गमनागमन का निषेध होता है, इसी कारण से नैषेधिकी होती है। ४३६/३१. कार्य करने से पूर्व गुरु को पूछना 'आपृच्छा' है। प्रयोजन होने पर पूर्व निषिद्ध कार्य करते समय Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001927
Book TitleAgam 40 Mool 01 Aavashyak Sutra Part 01
Original Sutra AuthorBhadrabahuswami
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2001
Total Pages592
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, & agam_aavashyak
File Size11 MB
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