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________________ २२५ आवश्यक नियुक्ति ४३६/५,६. यदि कोई साधु किसी कार्य को करने में असमर्थ है या उस कार्य को नहीं जानता है अथवा ग्लान आदि की सेवा में लगा हुआ है तो वह रत्नाधिक मुनियों के अतिरिक्त शेष मुनियों के प्रति इच्छाकार का प्रयोग करते हुए कहे कि आपकी इच्छा हो तो मेरा यह कार्य करें। ४३६/७, ८. करणीय कार्य बिगड़ रहा हो अथवा नहीं भी बिगड़ रहा हो, उस अभीष्ट कार्य के लिए अभ्यर्थना करते देखकर अन्य निर्जरार्थी साधु उस साधु से कहे 'यदि तुम्हारी इच्छा हो तो मैं तुम्हारा यह कार्य करूं' ऐसा कहने वाले मुनि के प्रति भी कार्य करवाने वाला साधु इच्छाकार का प्रयोग करे क्योंकि यह साधु की मूल मर्यादा है। ४३६/९. अथवा किसी साधु को अपना पात्र-लेपन आदि करते हुए देखकर अपने कार्य के लिए इच्छाकार का प्रयोग करे। वह कहे-आपकी इच्छा हो तो मेरा भी पात्र-लेपन आदि कार्य करें। ४३६/१०. अभ्यर्थित होने पर साधु कहे- 'मैं तुम्हारा कार्य करना चाहता हूं।' अथवा न करने की स्थिति में हो तो उसका कोई कारण बताए। अन्यथा अनुग्रह करके उस साधु का कार्य निष्पन्न करे। ४३६/११. अथवा ज्ञान आदि की प्राप्ति के लिए कोई शिष्य आचार्य की वैयावृत्त्य करता है। इस कार्य में भी आचार्य को 'इच्छाकार' पूर्वक मुनि को नियोजित करना चाहिए। ४३६/१२. निर्ग्रन्थों को आज्ञा और बलप्रयोग से कार्य कराना नहीं कल्पता। शैक्ष हो या रानिक सबके प्रति इच्छाकार का प्रयोग करना चाहिए। ४३६/१३,१४. जैसे वाल्हीक देश में उत्पन्न जात्यश्व खलिन को स्वयं ग्रहण कर लेते हैं तथा (मगध आदि) जनपद में उत्पन्न अश्व बलाभियोग से खलिन ग्रहण करते हैं, वैसे ही विविध प्रकार से विनय में शिक्षित शिष्य वाल्हीक अश्व की भांति स्वयं सामाचारी में नियुक्त हो जाते हैं तथा शेष शिष्य जनपद अश्व की भांति बलप्रयोग से सामाचारी में प्रवर्तित होते हैं। ४३६/१५. अभ्यर्थना में मरुक तथा वानर' का दृष्टान्त है। स्वयमेव गुरु द्वारा वैयावृत्य किए जाने पर दो वणिक् का दृष्टान्त ज्ञातव्य है। ४३६/१६. जो संयम-व्यापार में अभ्युत्थित है, श्रद्धा से कार्य में व्यापृत होता है तथा वस्तु की अप्राप्ति में भी अदीनमना है, उस तपस्वी मुनि के निर्जरा का लाभ होता ही है। ४३६/१७. संयम-योग में अभ्युत्थित मुनि द्वारा जो कुछ मिथ्या आचरण हुआ हो, उसे 'यह मिथ्या है', ऐसा जानकर मिथ्या दुष्कृत करना चाहिए। ४३६/१८. यदि पाप कर्म करके निश्चित ही निवर्तित होना हो तो उसे पुनः नहीं करना चाहिए, तब ही वह दुष्कर्म से प्रतिक्रान्त कहा जा सकता है। १, २. देखें परि. ३ कथाएं। ३. आचार्य मलयगिरि की टीका में वैयावृत्त्य पाठ का अर्थ संयम-व्यापार में अभ्युत्थित किया है (मटी. प. ३४६)। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001927
Book TitleAgam 40 Mool 01 Aavashyak Sutra Part 01
Original Sutra AuthorBhadrabahuswami
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2001
Total Pages592
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, & agam_aavashyak
File Size11 MB
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