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आवश्यक नियुक्ति आचार्य वट्टकेर के अनुसार सामायिक में परिणत वही जीव होता है, जिसने परीषह और उपसर्ग को जीत लिया है, जो भावना और समितियों में उपयुक्त है', जो स्व तथा अन्य आत्माओं में समान है, सब महिलाओं में जिसकी दृष्टि मातृवत् है तथा जो प्रिय-अप्रिय एवं मान-अपमान आदि परिस्थितियों में समान है। सैद्धान्तिक ज्ञान के आधार पर जो द्रव्य, गुण और पर्यायों के समवाय एवं सद्भाव को जानता है, उसके उत्तम सामायिक सिद्ध होती है। जो सर्व सावध योगों से विरत, तीन गुप्तियों से गुप्त एवं जितेन्द्रिय होता है, वह संयमस्थान रूप उत्तम सामायिक में परिणत हो जाता है फिर सामायिक और सामायिक-कर्ता में कोई भेद नहीं रहता।
नियुक्तिकार ने स्थिति, अन्तरकाल, विरहकाल, अविरहकाल, भव, आकर्ष, ज्ञान, उपयोग, कर्मस्थिति, आयुष्य, गति, संहनन, संस्थान, अवगाहना आदि अनेक दृष्टियों से भी सामायिक का विस्तृत विमर्श किया है। महत्त्वपूर्ण होने के कारण यहां केवल सामायिक का क्षेत्र और क्षेत्रस्पर्शना इस विषय का वर्णन किया जा रहा है। सामायिक और क्षेत्र
सम्यक्त्वसामायिक की प्राप्ति तीनों लोकों में होती है। देशविरतिसामायिक की प्राप्ति केवल तिर्यक् लोक में तथा सर्वविरति सामायिक की प्राप्ति मनुष्यलोक में होती है। श्रुतसामायिक, सम्यक्त्वसामायिक तथा देशविरतिसामायिक के पूर्वप्रतिपन्नक नियमत: तीनों लोकों में होते हैं। सर्वविरति सामायिक के पूर्वप्रतिपन्नक अधोलोक और तिरछे लोक में नियमतः होते हैं। ऊर्ध्वलोक में इसकी भजना है।
____ महाविदेह क्षेत्र में सदैव चौथा अर रहता है अत: वहां चारों सामायिक की प्रतिपत्ति हो सकती है। समय क्षेत्र के बाहर केवल तिर्यञ्च होते हैं अतः वहां सर्वविरति सामायिक को छोड़कर शेष तीन सामायिक की प्रतिपत्ति संभव है। नंदीश्वर आदि द्वीपों में विद्याचारण मुनियों के जाने से तथा देवों द्वारा संहरण होने से वहां सर्वविरति सामायिक पूर्वप्रतिपन्नक हो सकता है।'
देवकुरु, उत्तरकुरु आदि अकर्मभूमियों में उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी काल का अभाव होने से वहां केवल श्रुतसामायिक और सम्यक्त्वसामायिक का सद्भाव होता है।
नियुक्तिकार ने सामायिक का क्षेत्रस्पर्शना की दृष्टि से भी विचार किया है। सम्यक्त्वसामायिक और सर्वविरतिसामायिक से सम्पन्न जीव केवली समुद्घात के समय सम्पूर्ण लोक का स्पर्श करता है। श्रुतसामायिक और सर्वविरतिसामायिक से युक्त जीव इलिका गति से अनुत्तर विमान में उत्पन्न होता है, तब वह लोक के सप्त चतुर्दश ७/१४ भाग का स्पर्श करता है। सम्यक्त्वसामायिक और श्रुतसामायिक से उपपन्न जीव छठी नारकी में इलिका गति से उत्पन्न होता है। इस अपेक्षा से वह लोक के पंच चतुर्दश ५/१४ भाग का स्पर्श करता है। देशविरतिसामायिक से सम्पन्न जीव यदि इलिका गति से अच्युत देवलोक में उत्पन्न होता है तो ५/१४ भाग का स्पर्श करता है। यदि अन्य देवलोकों में उत्पन्न होता है तो वह द्वि चतुर्दश २/१४ आदि भागों का स्पर्श करता है। १. मूला. ५२०।
६. आवनि. ५११। २. मूला. ५२१ ।
७. विभामहे २७१०, महेटी. पृ. ५३९ । ३. मूला. ५२२।
८. विभामहेटी पृ. ५३९। ४. आवभा. १४९, हाटी. १ पृ. २१८, मूला. ५२४। ९. आवनि. ५५९, हाटी. १ पृ. २४२। ५. आवनि. ५१०।
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