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________________ भूमिका शोधि, सद्भावदर्शन, बोधि, अविपर्यय, सुदृष्टि । चारित्रसामायिक के दो भेद हैं-देशविरति और सर्वविरति। देशविरति सामायिक के ६ निरुक्त हैं-विरताविरति, संवृतासंवृत, बालपंडित, देशैकदेशविरति, अणुधर्म और अगारधर्म। सर्वविरति सामायिक की आठ निरुक्तियां हैं१. सामायिक-सम-मध्यस्थभाव की आय-उपलब्धि । २. समयिक-सभी जीवों के प्रति दया का भाव। ३. सम्यग्वाद-राग-द्वेष रहित यथार्थ-कथन। ४. समास-जीव की संसार-समुद्र से पारगामिता अथवा कर्मों का सम्यक् क्षेपण। ५. संक्षेप-महान् अर्थ का अल्पाक्षरों में कथन । ६. अनवद्य-पापशून्य प्रक्रिया। ७. परिज्ञा-पाप के परित्याग का सम्पूर्ण ज्ञान। ८. प्रत्याख्यान-गुरु की साक्षी से हेय प्रवृत्ति से निवृत्ति। आचार्य भद्रबाहु ने इन आठ निरुक्तियों में क्रमश: दमदंत, मुनि मेतार्य, कालकपृच्छा, चिलातपुत्र, ऋषि आत्रेय, धर्मरुचि, इलापुत्र और तेतलिपुत्र आदि आठ अनुष्ठानकर्ताओं के कथानक दिए हैं। ये आठों कथानक उत्कृष्ट समताभाव के निदर्शन हैं। कथानकों के विस्तार हेतु देखें-परि. ३, कथा संख्या ११२११७, इलापुत्र के कथानक हेतु देखें कथा सं. १११ । सामायिक के अधिकारी सामायिक का अधिकारी कौन होता है? इसकी विस्तृत चर्चा आवश्यकनियुक्ति, मूलाचार आदि ग्रंथों में मिलती है। एक चिंतनीय प्रश्न यह है कि षडावश्यक में वर्णित सामायिक और श्रावक के नित्यक्रम में की जाने वाली सामायिक में अंतर है या नहीं? इस बारे में आचार्यों ने विशेष स्पष्टीकरण नहीं किया लेकिन संभव यही लगता है कि षडावश्यक में वर्णित सामायिक का ही प्रायोगिक रूप यह सामायिक है। आचार्य भद्रबाहु कहते हैं कि सामायिक करते हुए श्रावक श्रमण की भांति हो जाता है। वट्टकेर ने इस प्रसंग में एक उदाहरण देते हुए कहा है कि सामायिक करते हुए श्रावक के पास बाणों से विद्ध हरिण आकर मर गया फिर भी श्रावक ने सामायिक को भंग नहीं किया। सामायिक करने की अर्हता का वर्णन करते हुए नियुक्तिकार कहते हैं कि जिसकी आत्मा संयम, नियम और तप में जागरूक है, उसके सामायिक होती है। जो त्रस और स्थावर सब प्राणियों के प्रति समभाव रखता है, उसके सामायिक होती है। जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण के अनुसार प्रियधर्मा, दृढ़धर्मा, संविग्न, पापभीरू, अशठ, क्षान्त, दान्त, गुप्त, स्थिरव्रती, जितेन्द्रिय, ऋजु, मध्यस्थ, समित और साधुसंगति में रत-इन गुणों से सम्पन्न व्यक्ति सामायिक ग्रहण करने के योग्य होता है। १. आवनि ५६१। २. विभामहेटी पृ. ५५४; बृहत्साधुधर्मापेक्षयाऽणुरल्पो धर्मोऽणुधर्मः। ३. आवनि, ५६३। ४. आवनि. ५६४। ५. आवनि. ५०५, मूला ५३३। ६. मूला ५३४। ७. आवनि. ५०१, ५०२,, मूला. ५२५, ५२६ । ८. विभामहे ३४१०,३४११। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001927
Book TitleAgam 40 Mool 01 Aavashyak Sutra Part 01
Original Sutra AuthorBhadrabahuswami
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2001
Total Pages592
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, & agam_aavashyak
File Size11 MB
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