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________________ भूमिका नियुक्ति : एक परिचय नियुक्ति जैन आगमों का प्रथम पद्यबद्ध व्याख्या-साहित्य है। आर्या छंद में निबद्ध इस विधा में आचार्य भद्रबाहु ने विशेष रूप से पारिभाषिक शब्दों की व्याख्या प्रस्तुत की है। हरिभद्र ने इसे निरुक्ति नाम से भी अभिहित किया है। नियुक्ति का अर्थ है-शब्द का सही अर्थ प्रकट करना। तत्कालीन प्रचलित शब्द के अनेक अर्थों को बताकर अंत में प्रस्तुत अर्थ का प्रकटीकरण ही नियुक्ति का प्रयोजन है। इसके लिए नियुक्तिकार ने निक्षेप पद्धति का आश्रय लिया है। इस पद्धति से उस समय में प्रचलित शब्द के अनेक अर्थों को बताकर प्रस्तुत अर्थ की सूत्र में आए शब्द के साथ सम्यक् योजना की गयी है। नियुक्ति को परिभाषित करते हुए आचार्य भद्रबाहु कहते हैं-'निज्जुत्ता ते अत्था, जं बद्धा तेण होइ निज्जुत्ती' अर्थात् सूत्र के साथ अर्थ का निर्णय जिसके द्वारा होता है, वह नियुक्ति है। आचार्य जिनदास के अनुसार नियुक्ति का अर्थ है-सूत्र में नियुक्त अर्थ की व्याख्या करने वाली रचना। आचार्य शीलांक भी प्रकारान्तर से यही बात कहते हैं। उनके अनुसार निश्चय रूप से सम्यग् अर्थ का निरूपण तथा सूत्र में ही परस्पर संबद्ध अर्थ को प्रकट करना नियुक्ति का प्रयोजन है। कोट्याचार्य के अभिमत से विषय और विषयी के निश्चित अर्थ का संबंध जोड़ना नियुक्ति है। टीकाकारों ने विविध प्रकार से नियुक्ति शब्द के अनेक निरुक्त किए हैं। डॉ. नथमल टांटिया के अनुसार नियुक्तियां व्याख्यात्मक विषय-सूचियां या अर्थकथाएं हैं। जो आगम सूत्राकार में मिलते हैं, उनमें प्राचीनकाल में छोटे-छोटे उपोद्घात थे, जो सूत्रों की उत्थानिका के रूप में थे। स्थानांग आदि सूत्रों से यह बात स्पष्ट हो जाती है। शूबिंग आदि कुछ विद्वानों ने यह दिखाने का प्रयत्न किया है कि स्थानांग जैसे सूत्रों में संगृहीत विषयों की पृष्ठभूमि संक्षेपीकरण के उद्देश्य से निकाल दी गई है। जर्मन विद्वान् शान्टियर इसे परिभाषित करते हुए कहते हैं-'नियुक्तियां प्रधान रूप से केवल इंडेक्स का काम करती हैं। ये सभी विस्तृत घटनावलियों का संक्षेप में उल्लेख करती हैं।' विशेषावश्यक भाष्य में व्याख्यान-विधि के तीन प्रकार हैं, उनमें नियुक्ति का दूसरा स्थान है। कहा जा सकता है कि व्याख्या साहित्य में नियुक्तियों का महत्त्वपूर्ण स्थान है। नियुक्ति का कर्तृत्व, रचनाकाल आदि के बारे में हम अगले खंड में विस्तार से चर्चा करेंगे। नियुक्ति का प्रयोजन सूत्र में नियुक्त अर्थ की व्याख्या करना नियुक्ति है। चूर्णिकार एवं टीकाकार ने प्रश्न उपस्थित किया है कि सूत्र में अर्थ सम्यक् रूप से निबद्ध हैं ही फिर अलग से नियुक्तियां लिखने की आवश्यकता क्यों हुई? इस प्रश्न का उत्तर स्वयं नियुक्तिकार देते हुए कहते हैं-'तह वि य इच्छावेइ, विभासिउं १. आवनि ८२; आवमटी. प. १००; सूत्रार्थयोः परस्परं विषयविषयिणो नियुक्तिरभिधीयते । निर्योजनं संबंधनं नियुक्तिः। ५. दशहाटी प. २, २. आवचू. १ पृ. ९२; सुत्तनिज्जुत्तअत्थनिज्जूहणं निज्जुत्ती। (अ) निर्यक्तानामेव सूत्रार्थानां युक्ति:----परिपाट्या योजनं ३. सूटी पृ. १; योजनं युक्तिः-अर्थघटना निश्चयेनाधिक्येन नियुक्तियुक्तिरिति वाच्ये युक्तशब्दलोपान्नियुक्तिः । वा युक्ति नियुक्तिः सम्यगर्थप्रकटनम्। निर्युक्तानां वा सूत्रेष्वेव परस्परसंबद्धानामर्थानामाविर्भावनं ६. विभामहे ५६३; पंचभा २३७४; युक्तशब्दलोपान्नियुक्तिः। सुत्तत्थो खलु पढमो, बीओ निजुत्तिमीसओ भणिओ। ४. विभाकोटी पृ. २७६ : नियोजनं निश्चितं सम्बन्धनं तयो तइओ य निरवसेसो, एस विही होति अणुओगे। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001927
Book TitleAgam 40 Mool 01 Aavashyak Sutra Part 01
Original Sutra AuthorBhadrabahuswami
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2001
Total Pages592
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, & agam_aavashyak
File Size11 MB
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