SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 255
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १९६ आवश्यक नियुक्ति बढ़ रहा है,आप उनसे पराजित हो रहे हैं। श्रावकों को काकिणीरत्न से चिह्नित करना । आठ पुरुषों अथवा आठ तीर्थंकरों तक इस परम्परा का प्रवर्तन।' २२८. वे आठ पुरुष ये हैं-राजा आदित्ययश, महायश, अतिबल, बलभद्र, बलवीर्य, कार्तवीर्य, जलवीर्य तथा दंडवीर्य। २२८/१. इन्होंने समस्त अर्ध भरत पर राज्य किया, उसका उपभोग किया। इन्होंने इंद्र द्वारा आनीत प्रथम जितेन्द्र का मुकुट शिर पर धारण किया। शेष नरपति उसे वहन करने में समर्थ नहीं हुए। २२९. अश्रावकों का प्रतिषेध और छह-छह महीनों से अनुयोग अर्थात् परीक्षण होने लगा। कालान्तर में ये मिथ्यात्व को प्राप्त हुए। नौवें तीर्थंकर सुविधिनाथ के अन्तरकाल में साधुओं का व्यवच्छेद हुआ। २३०. माहनों को दान, वेदों का प्रणयन, पृच्छा, निर्वाण, अग्निकुंड, स्तूप, जिनगृह, कपिल तथा भरत की दीक्षा-ये व्याख्येय द्वार हैं। २३१. समवसरण में भरत ने वासुदेवों के बारे में न पूछकर तीर्थंकरों और चक्रवर्तियों के बारे में पूछा। इसके अतिरिक्त इस परिषद् में कौन ऐसा व्यक्ति है, जो इस भरतक्षेत्र में आगामी तीर्थंकर होगा, यह भी पूछा। २३२. जिनेश्वर, चक्रवर्ती तथा दशार (वासुदेव)-इनके वर्ण, प्रमाण, नाम, गोत्र, आयु, पुर, माता, पिता, पर्याय तथा गति कहे जाएंगे। २३२/१. जिनेश्वर देव ने कहा- 'इस भरतवर्ष में जैसा मैं हूं, वैसे ही अन्य तेवीस तीर्थंकर होंगे।' २३३,२३४. तेवीस तीर्थंकरों के नाम इस प्रकार हैं-अजित, संभव, अभिनंदन, सुमति, सुप्रभ, (पद्म), सुपार्श्व, चन्दप्रभ, पुष्पदंत, शीतल, श्रेयांस, वासुपूज्य, विमल, अनन्त, धर्म, शांति, कुन्थु, अर, मल्लि, मुनिसुव्रत, नमि, नेमि, पार्श्व तथा वर्द्धमान । २३४/१,२. चक्रवर्ती भरत ने ऋषभ से पूछा- 'तात ! भरतवर्ष में जैसा मैं हूं, क्या वैसे राजा और होंगे?' ऋषभ ने कहा- 'भरत! जैसे तुम नरेन्द्र शार्दूल हो वैसे ग्यारह राजा और होंगे।' १. आवचू १ पृ. २१३-१५; ताहे भरहो सावए सद्दावेत्ता भणति-'मां कम्मं पेसणादि वा करेह, अहं तब्भं वित्तिं कप्पेमि, तुब्भेहिं पढंतेहिं सुणंतेहिं जिणसाधुसुस्सूसणं कुणंतेहिं अच्छियव्वं', ताहे ते दिवसदेवसियं भुंजंति, ते य भणंति-'जहा तुब्भं जिता अहो भवान् वर्द्धते भयं मा हणाहित्ति', एवं भणितो संतो आसुरुत्तो चिन्तेति-केण हि जितो?, ताहे से अप्पणो मति उप्पज्जति कोहादिएहिं जितो मित्ति, एवं भोगपमत्तं संभारेंति-भरत ने श्रावकों को आमंत्रित कर निर्देश दिया कि तुम कृषि, व्यापार आदि कार्य मत करो। मैं तुम्हें आजीविका दूंगा। आज से पठन, श्रवण एवं साधु-उपासना-ये ही तुम्हारे कार्य होंगे। श्रावक वहीं भोजन करने लगे और भरत को प्रतिदिन कहते-'आप पराजित हो रहे हैं, अहो भय बढ़ रहा है, किसी को मत मारो आदि।' ऐसा कहने पर भरत सोचता मैं किससे जीता गया हूं? सोचते-सोचते उसकी स्वतः बुद्धि उत्पन्न हो गई कि मैं क्रोध आदि के द्वारा जीता गया हूं। इस प्रकार वे माहण भोगप्रमत्त भरत को सावधान करते रहते। २. देखें परि. ३ कथाएं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001927
Book TitleAgam 40 Mool 01 Aavashyak Sutra Part 01
Original Sutra AuthorBhadrabahuswami
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2001
Total Pages592
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, & agam_aavashyak
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy