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आवश्यक नियुक्ति
१९५ २१५-२१७. एक बार ग्रीष्म ऋतु में मरीचि का शरीर ताप से परितप्त हो गया। अस्नान परीषह से पराजित होकर, संयम को छोड़ वह इस प्रकार कुलिंग का चिन्तन करने लगा-'मैं धृति आदि गुणों से शून्य तथा संसार का आकांक्षी हूं।' मैं मेरुपर्वत के तुल्य भार वाले इन श्रमण गुणों को मुहूर्त भर के लिए भी वहन करने में समर्थ नहीं हूं। इस प्रकार अनुचिन्तन करते हुए मरीचि को स्वतः ऐसी बुद्धि उत्पन्न हुई कि मुझे उपाय प्राप्त हो गया। अब मेरी बुद्धि शाश्वत हो गई। २१८. [मरीचि ने इस कुलिंग का चिन्तन किया] ये श्रमण मनोवाक्कायरूप त्रिदंड से विरत हैं, ये ऋद्धि आदि से संपन्न भगवान् हैं। ये निभृत अर्थात् अन्तःकरण के अशुभ चिन्तन से शून्य हैं। ये संकुचित अंगअशुभ प्रवृत्ति के परित्याग से युक्त अंग वाले हैं। मैं अजितेन्द्रिय हूं, तीन दंडों से युक्त हूं इसलिए त्रिदंड मेरा चिह्न हो। २१९. ये श्रमण लोचमुंड तथा इन्द्रियमुंड-दोनों हैं। मैं क्षुरमुंड तथा चोटी सहित रहूंगा। मैं सदा केवल स्थूलप्राणिवध से विरत रहूंगा। २२०. ये श्रमण निष्किञ्चन और अकिंचन हैं। मैं किंचित् परिग्रह रखूगा। ये श्रमण शील की सुगंध से संपन्न हैं, मैं शील से दुर्गंध युक्त हूं। २२१. ये श्रमण मोह से रहित हैं, मैं मोह से आच्छादित हूं अत: मैं छत्र रखूगा। ये श्रमण जूतों से विकल हैं, मैं जूते रखूगा। २२२. ये श्रमण शुक्लवस्त्र वाले अथवा दिगम्बर रहने वाले हैं। मैं भगवा वस्त्र धारण करूंगा। मैं कषायों से कलुषित मति वाला हूं अतः ऐसे वस्त्रों के योग्य ही हूं। २२३. ये श्रमण पापभीरू हैं अत: बहुजीव समाकुल जल का आरंभ नहीं करते लेकिन मैं परिमित जल से स्नान करूंगा, परिमित जल पीऊंगा। २२४. इस प्रकार मरीचि ने अपनी बुद्धि से इस लिंग की परिकल्पना की। अपने हितकारी हेतुओं से युक्त पारिव्रज्य (परिव्राजक अवस्था) का उसने प्रवर्तन किया। २२५. (वह इस लिंग से युक्त होकर भगवान् के साथ विहार करने लगा) उसके इस विजातीय रूप को देखकर अनेक लोग धर्म की पृच्छा करते। वह कहता- 'इन श्रमणों का धर्म श्रेष्ठ है।' (तब लोग कहते'तुमने यह धर्म क्यों नहीं स्वीकार किया?') तब इस प्रश्न की विचारणा में वह श्रमणों के आचार का पूरा कथन करता। २२६. मरीचि भगवान् ऋषभ के साथ ग्राम, नगर आदि में विहरण करता और धर्मकथा से आकृष्ट उपस्थित लोगों को भगवान् के शिष्य के रूप में उपहृत कर देता। २२७. भगवान् का समवसरण। भरत द्वारा आनीत भक्तपान अवग्रह की पृच्छा। इन्द्र द्वारा अंगुलि दिखाना। ध्वजोत्सव का प्रारम्भ। श्रावकों की संख्या अधिक, उनके द्वारा भरत को कहना कि कषाय आदि का भय
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