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________________ १९४ आवश्यक नियुक्ति २०६, २०७. भगवान् ऋषभ का छद्मस्थकाल एक हजार वर्ष का था । उनको केवलज्ञान की उपलब्धि पुरिमताल नगर के न्यग्रोध वृक्ष के नीचे हुई। उस दिन फाल्गुन कृष्णा एकादशी का दिन था तथा भगवान् केले की तपस्या थी । अनंत ज्ञान की उत्पत्ति होने पर भगवान् ने पांच महाव्रतों की प्रज्ञापना की। २०७/१. जरा और मरण से विप्रमुक्त भगवान् ऋषभ को अनन्तज्ञान की प्राप्ति हो जाने पर देव और दानवों के इन्द्रों ने जिनेश्वर देव की पूजा की। २०८. विनीता नगरी के पुरिमताल उद्यान में भगवान् को केवलज्ञान की प्राप्ति हुई। उसी दिन भरत की आयुधशाला में चक्र की उत्पत्ति हुई । भरत को ज्ञानोत्पत्ति और चक्रोत्पत्ति - दोनों के विषय में निवेदन किया गया। २०९. भरत ने सोचा-पिता की पूजा कर लेने पर चक्र स्वयं पूजित हो जाता है क्योंकि पिता पूजार्ह होते हैं। चक्र ऐहिक होता है अर्थात् इहलोक के सुख का हेतु होता है और पिता परलोक के लिए सुखावह हैं । (इसलिए चक्र की पूजा से पूर्व पिता की पूजा करनी चाहिए।) २१०. भरत मरुदेवा के साथ ऋषभ के दर्शनार्थ गया । भगवान् ने धर्म का उपदेश दिया। भरत का पुत्र ऋषभसेन प्रव्रजित हुआ । ब्राह्मी और मरीचि की दीक्षा हुई। सुंदरी की दीक्षा नहीं हुई । उसको स्त्रीरत्न के रूप में अन्तःपुर में रख लिया । २११. भरत के पांच सौ पुत्र तथा सात सौ पौत्र थे । वे सभी कुमार एक साथ उस समवसरण में प्रव्रजित हो गए । २११/१,२. भवनपति, व्यन्तर, ज्योतिष्क तथा वैमानिक देवों ने अपनी समस्त ऋद्धि और परिषद् के साथ भगवान ऋषभ की ज्ञानोत्पत्ति का उत्सव मनाया। देवताओं द्वारा की जाने वाली पूजा और महिमा को देखकर क्षत्रिय मरीचि को सम्यक्त्व उपलब्धि हुई। उसने भगवान् से धर्म सुनकर उनके पास प्रव्रज्या ग्रहण कर ली । २१२. भरत चक्रवर्ती ने मागध आदि देशों पर विजय प्राप्त की। सुंदरी प्रव्रजित हो गई । भरत का राज्याभिषेक बारह वर्षों तक चला। उसने अपने भाइयों को आज्ञा शिरोधार्य करने के लिए आज्ञापित किया । उनके द्वारा समवसरण में पूछने पर भगवान् ने अंगारदाहक का दृष्टान्त कहा। २१३. बाहुबलि ने कुपित होकर दूत द्वारा चक्रवर्ती भरत को निवेदन करवाया। देवताओं द्वारा बाहुबलि को यथार्थ कथन। 'मैं अधर्म से युद्ध नहीं करूंगा' यह सोचकर बाहुबलि दीक्षा ग्रहण कर प्रतिज्ञा के साथ प्रतिमा में स्थित हो गए। २१४. मुनिचर्या में उपयुक्त, श्रुत के प्रति भक्तिमान् रहकर मरीचि ने गुरु के पास सामायिक से लेकर ग्यारह अंगों का अध्ययन किया। १-४. देखें परि. ३ कथाएं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001927
Book TitleAgam 40 Mool 01 Aavashyak Sutra Part 01
Original Sutra AuthorBhadrabahuswami
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2001
Total Pages592
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, & agam_aavashyak
File Size11 MB
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