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________________ आवश्यक निर्युक्ति २०३/१-७. तीर्थंकरों के प्रथम भिक्षा-नगर तथा प्रथम भिक्षा-दाताओं के नाम इस प्रकार हैं तीर्थंकर तीर्थंकर नगर १३. विमल धान्यकट वर्द्धमान सौमनस मंदिरपुर १. ऋषभ २. अजित ३. संभव ४. अभिनंदन ५. सुमति ६. पद्म ७. सुपार्श्व ८. चन्द्र ९. सुविधि १०. शीतल ११. श्रेयांस १२. वासुपूज्य नगर हस्तिनापुर अयोध्या श्रावस्ती साकेत विजयपुर दान-दाता श्रेयांस ब्रह्मदत्त सुरेन्द्रदत्त Jain Education International इन्द्रदत्त पद्म सोमदेव महेन्द्र सोमदत्त सुमित्र व्याघ्रसिंह ब्रह्मस्थल अपराजित पाटलिषंड विश्वसेन पद्मषंड ब्रह्मदत्त श्रेयः पुर दत्त अरिष्टपुर वरदत्त सिद्धार्थपुर धन्य महापुर सुनन्द बहुल २०३/८-१०. इन सभी दानदाताओं ने हाथ जोड़कर, भक्ति- बहुमानपूर्वक, शुक्ललेश्या में प्रवर्त्तमान होकर, प्रसन्न चित्त से जिनेश्वरदेवों को प्रतिलाभित किया। सभी जिनेश्वरदेवों ने जहां प्रथम भिक्षा प्राप्त की, वहां वसुधारा तथा पुष्पवृष्टि हुई। उत्कृष्टतः साढ़े बारह करोड़ स्वर्ण मुद्राओं की और जघन्यतः साढ़े बारह लाख स्वर्ण मुद्राओं की वृष्टि हुई। पुष्य पुनर्वसु १४. अनन्त १५. धर्म १६. शांति १७. कुन्थु १८. अर १९. मल्लि २०. मुनिसुव्रत २१. नमि २२. नेमि २३. पार्श्व २४. महावीर नंद चक्रपुर रायपुर मिथिला १९३ राजगृह वीरपुर द्वारवती कोपकट कोल्लाक दान-दाता जय विजय धर्मसिंह २०३/११, १२. जिन्होंने भी जिनेश्वर देवों को प्रथम भिक्षा दी, वे प्रतनु राग-द्वेष वाले तथा दिव्य पराक्रम वाले हो गए। उन दानदाताओं में से कुछेक उसी भव में समस्त कर्मों से मुक्त होकर निर्वृत हो गए तथा अन्य दानदाता तीसरे भव में जिनेश्वरदेव के साथ सिद्ध होंगे। २०४. बाहुबलि ने सोचा- 'कल सब ऋद्धियों से युक्त होकर मैं भगवान् ऋषभ की पूजा करूंगा।' भगवान् को न देखकर उसने धर्मचक्र की स्थापना कर उसकी पूजा की। भगवान् ने भरत वर्ष में एक हजार वर्ष तक छद्मस्थ अवस्था में विहरण किया। For Private & Personal Use Only २०४/१. तप करते हुए भगवान् बहली, अडंब, इल्ल, योनक आदि देश तथा सुवर्णभूमि में गए। २०४/२. भगवान् के उपदेश से बहली, योनक और पल्हग तथा अन्य म्लेच्छ जातियों के लोग भद्रस्वभाव वाले हो गए। २०५. तीर्थंकरों में भगवान् ऋषभ ही प्रथम तीर्थंकर थे, जिनका विहार निरुपसर्ग रहा। जिनेश्वर देव की अग्रभूमि - निर्वाणभूमी अष्टापद पर्वत था। १, २. देखें परि. ३ कथाएं । www.jainelibrary.org
SR No.001927
Book TitleAgam 40 Mool 01 Aavashyak Sutra Part 01
Original Sutra AuthorBhadrabahuswami
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2001
Total Pages592
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, & agam_aavashyak
File Size11 MB
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