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________________ १९२ आवश्यक नियुक्ति धर्मनाथ आठ सौ श्रमणों के साथ, वासुपूज्य छह सौ श्रमणों के साथ, अनन्त जिन सात हजार श्रमणों के साथ, विमल जिन छह हजार श्रमणों के साथ, सुपार्श्व पांच सौ श्रमणों के साथ, पद्मप्रभ ३०८ श्रमणों के साथ, ऋषभ दस हजार श्रमणों के साथ तथा शेष तीर्थंकर हजार-हजार श्रमणों के साथ सिद्ध हुए। जिनके काल आदि का निर्देश नहीं दिया गया है, उसे प्रथमानुयोग से जान लेना चाहिए। १९३. इस प्रकार सभी तीर्थंकरों का सारा विवेचन प्रथमानुयोग से जान लेना चाहिए। स्थान की अशून्यता के लिए कुछ कहा गया है। अब प्रस्तुत विषय का वर्णन करूंगा। १९४. भगवान् ऋषभ का समुत्थान, मरीचि का उत्थान तथा सामायिक का वर्णन जानना चाहिए। १९४/१. भगवान् ऋषभ को लोकान्तिक देव द्वारा संबोधन, उनका अभिनिष्क्रमण, नमि और विनमि द्वारा वैताढ्य पर्वत पर विद्या का ग्रहण तथा नागराज द्वारा उत्तरदक्षिण श्रेणी में पचास एवं साठ नगरों का उन्हें आधिपत्य देना। १९५. चैत्र कृष्णा अष्टमी के दिन, चार हजार व्यक्तियों से समन्वित होकर भगवान् ऋषभ ने अपराह्न के समय में सुदर्शना शिविका में अवस्थित होकर सिद्धार्थ वन में बेले की तपस्या में निष्क्रमण किया। १९६. चार हजार व्यक्तियों ने स्वयं पंचमुष्टिक लुंचन कर यह प्रतिज्ञा की- 'जो क्रियानुष्ठान भगवान् ऋषभ करेंगे, वैसा ही हम भी करेंगे।' १९७. भगवान् ऋषभ वृषभ जैसी गति को स्वीकार कर, परमघोर अभिग्रह को ग्रहण कर व्युत्सृष्टत्यक्तदेह-निष्प्रतिकर्मशरीर होकर ग्रामानुग्राम विहरण करने लगे। १९८. नमि विनमि द्वारा भगवान् से याचना। नागराज का आगमन, विद्यादान तथा वैताढ्य पर्वत की उत्तरदक्षिण श्रेणी में पचास एवं साठ नगरों पर आधिपत्य। १९९. भगवान् निष्प्रकंप चित्त से एक संवत्सर तक निराहारी रहकर विहरण कर रहे थे। लोग भिक्षा में उन्हें कन्याएं, वस्त्र, आभूषण तथा आसन आदि को ग्रहण करने के लिए निमंत्रित करते। २००. लोकनाथ ऋषभ को एक संवत्सर के पश्चात् भिक्षा प्राप्त हुई। शेष सभी तीर्थंकरों ने दूसरे ही दिन प्रथम भिक्षा प्राप्त कर ली। २०१. लोकनाथ ऋषभ को प्रथम पारणे में इक्षुरस की प्राप्ति हुई। शेष सभी तीर्थंकरों के प्रथम पारणे में अमृतरस के सदृश रस वाला परमान्न (खीर) प्राप्त हुआ। २०२. प्रथम पारणे में आकाशगत देवों ने 'अहोदानं अहोदानं' की घोषणा की। दिव्य वाद्य आहत हुए, दुन्दुभि बजी, देव निकट आए तथा सोनैयों की वर्षा हुई। २०३. गजपुर नगर में भगवान् ऋषभ के पौत्र श्रेयांस द्वारा इक्षु रस का दान, वसुधारा की वृष्टि, चौकी या स्तूप की रचना, गुरु-पूजा, तक्षशिला में आगमन, बाहुबलि का निवेदन ।' १-३. देखें परि. ३ कथाएं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001927
Book TitleAgam 40 Mool 01 Aavashyak Sutra Part 01
Original Sutra AuthorBhadrabahuswami
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2001
Total Pages592
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, & agam_aavashyak
File Size11 MB
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