SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 245
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १८६ ७. परीषह ८. जीवोपलम्भ ९. श्रुतलाभ १०. प्रत्याख्यान ११. संयम १२. छद्मस्थ अवस्था १३. तप: कर्म १४. ज्ञानोत्पाद १५. संग्रह - शिष्य-संपदा १६. तीर्थ १७. गण आवश्यक नियुक्ति १८. गणधर १९. धर्मोपायदेशक – द्वादशांग अथवा पूर्वों के उपदेशक २०. पर्याय - संयमपर्याय २१. किस तीर्थंकर की किस तपस्या में अंतक्रिया । १४६. सभी तीर्थंकर स्वयंबुद्ध होते हैं । लोकान्तिक देव अपने जीतकल्प के अनुसार उन्हें प्रतिबोधित करते हैं। सभी तीर्थंकर सांवत्सरिक दान देकर गृह-परित्याग करते हैं । १४७. राज्य आदि का त्याग भी परित्याग है । प्रत्येक अर्थात् कौन तीर्थंकर कितने व्यक्तियों के साथ प्रव्रजित हुए? किसकी क्या उपधि थी ? कौन सी उपधि किन शिष्यों के लिए अनुज्ञात थी ? यह भी ज्ञातव्य है । १४७/१,२. सारस्वत, आदित्य, वह्नि, वरुण, गर्दतोय, तुषित, अव्याबाध, अग्नि, रिष्ट- ये लोकान्तिक देवनिकाय जिनेश्वर देव को प्रतिबोधित करते हैं। वे कहते हैं - 'भगवन्! समस्त जीवों के हित के लिए आप तीर्थ का प्रवर्तन करें ।' १४७/३. जिनेश्वरदेव संवत्सर महादान के पश्चात् अभिनिष्क्रमण करते हैं। वे पूर्वाह्न में महादान देते हैं। १४७/४. तीर्थंकरों द्वारा सूर्योदय से प्रातराश तक एक करोड़ आठ लाख स्वर्णमुद्राओं का दान दिया जाता है। १४७/५, ६. सुर-असुर, देव, दानव और नरेन्द्र द्वारा पूजित तीर्थंकरों के अभिनिष्क्रमण के समय महादान की विधि का स्वरूप इस प्रकार होता है - श्रृंगाटकमार्ग, त्रिकमार्ग, चतुष्कमार्ग, चत्वर तथा चतुर्मुखमार्ग, महापथ, नगरद्वार तथा गली के प्रवेशमार्गों के मध्य - इन सब स्थानों पर वरवरिका' - ' वर मांगो, वर मांगो' की तथा किमिच्छक' - 'कौन क्या चाहता है, उसे वही वस्तु अनेक विधियों से दी जाएगी' घोषणा की जाती है। १४७/७. प्रत्येक तीर्थंकर एक साल में तीन सौ अट्ठासी करोड़ अस्सी लाख हिरण्य का दान देते हैं। Jain Education International १४७ / ८-१०. महावीर, अरिष्टनेमि, पार्श्वनाथ, मल्लि तथा वासुपूज्य – इन पांच तीर्थंकरों को छोड़कर शेष सभी तीर्थंकर पहले राजा बने। ये पांचों तीर्थंकर विशुद्ध वंश तथा क्षत्रियकुल के राजकुल से संबंधित थे । इनका ईप्सित' राज्याभिषेक नहीं हुआ तथा सभी कुमार अवस्था में प्रव्रजित हुए। शांतिनाथ, अरनाथ तथा १, वरं याचध्वं वरं याचध्वमित्येवं घोषणा समयपरिभाषया वरवरिकोच्यते (आवहाटी १ पृ. ९१ ) । २. यो यदिच्छति तस्य तद्दानं समयत एव किमिच्छकमुच्यते (आवहाटी १ पृ. ९१ ) । ३. देखें १४७ / ९ वीं गाथा का टिप्पण। For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001927
Book TitleAgam 40 Mool 01 Aavashyak Sutra Part 01
Original Sutra AuthorBhadrabahuswami
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2001
Total Pages592
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, & agam_aavashyak
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy