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________________ आवश्यक नियुक्ति १८७ कुंथुनाथ-ये तीनों पहले चक्रवर्ती और फिर तीर्थंकर बने । अवशेष तीर्थंकर मांडलिक राजा थे। १४८,१४९. भगवान् महावीर अकेले, भगवान् पार्श्व तथा मल्लिनाथ तीन-तीन सौ व्यक्तियों के साथ, भगवान् वासुपूज्य छह सौ व्यक्तियों के साथ, भगवान् ऋषभ चार हजार उग्र, भोज, राजन्य और क्षत्रियों के साथ तथा शेष तीर्थंकर हजार-हजार व्यक्तियों के साथ प्रव्रजित हुए। १४९/१. भगवान् महावीर, अरिष्टनेमि, पार्श्व, मल्लि और वासुपूज्य-ये पांच तीर्थंकर प्रथम वय में तथा शेष तीर्थंकर पश्चिम वय में प्रव्रजित हुए। १५०. सभी तीर्थंकर एकदूष्य-एकवस्त्र के साथ प्रव्रजित हुए। वे अन्यलिंग, गृहस्थलिंग अथवा कुलिंग' में प्रव्रजित नहीं हुए। १५१. सुमति जिनेश्वर बिना किसी तपस्या के, वासुपूज्य उपवास में, पार्श्व और मल्लि तेले की तपस्या में तथा शेष तीर्थंकर बेले की तपस्या में प्रव्रजित हुए। १५२. ऋषभ ने विनीता नगरी तथा अरिष्टनेमि ने द्वारवती नगरी से अभिनिष्क्रमण किया। शेष तीर्थंकरों ने अपनी-अपनी जन्मभूमि से अभिनिष्क्रमण किया। १५३,१५४. ऋषभ सिद्धार्थ वन में, वासुपूज्य विहारगृह में, जिनेश्वर धर्म वप्रगा में, मुनिसुव्रत नीलगुफा में, पार्श्व आश्रमपद में, महावीर ज्ञातषंड उद्यान में तथा शेष जिनेश्वर सहस्राम्रवन उद्यान में अभिनिष्क्रान्त हुए। १५५. पार्श्व, अरिष्टनेमि, श्रेयांस, सुमति तथा मल्लिनाथ-इन सभी तीर्थंकरों ने पूर्वाह्न में तथा शेष तीर्थंकरों ने अपराह्न में अभिनिष्क्रमण किया। १५६,१५७. कुमार अवस्था में प्रव्रजित तीर्थंकरों के अतिरिक्त सभी तीर्थंकरों ने ग्राम्याचार विषय अर्थात् अब्रह्म का सेवन कर प्रव्रज्या ग्रहण की। किन-किन तीर्थंकरों का किन-किन ग्रामों तथा आकर आदि में विहार हुआ, उसका कथन इस प्रकार है-मगध, राजगृह आदि क्षेत्रार्य देशों में तीर्थंकरों का विहार हुआ लेकिन ऋषभ, नेमि, पार्श्व और महावीर-इनका विहार अनार्यदेशों में भी हुआ। १५८. सभी तीर्थंकरों ने प्राप्त परीषहों पर विजय प्राप्त की। वे जीव, अजीव आदि नौ पदार्थों को उपलब्ध कर निष्क्रान्त हुए। १५९. प्रथम तीर्थंकर ऋषभ के पूर्वभव में द्वादशांग तथा शेष तीर्थंकरों के एकादशांग श्रुत का उपलंभ था। प्रथम और अंतिम तीर्थंकर के समय में पंचयाम तथा शेष तीर्थंकरों के समय में चतुर्याम की अवधारणा थी। १६०. प्रथम और अंतिम तीर्थंकर के समय में प्रत्याख्यान तथा संयम दो विकल्प वाला था-सामायिक चारित्र तथा छेदोपस्थापना चारित्र। शेष सभी तीर्थंकरों के समय में सप्तदशांग संयम वाला सामायिक चारित्र था। १. तापस, परिव्राजक आदि का लिंग कुलिंग है (आवचू१ पृ. १५७)। २. आवचू १ पृ. १५८ ; सुतलंभे उसभसामी पुव्वभवे चोद्दसपुव्वी, अवसेसा एक्कारसंगी-तीर्थंकर ऋषभ पूर्वभव में चतुर्दशपूर्वी थे। शेष तेवीस तीर्थंकर आचारांग आदि ग्यारह अंगों के ज्ञाता थे। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001927
Book TitleAgam 40 Mool 01 Aavashyak Sutra Part 01
Original Sutra AuthorBhadrabahuswami
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2001
Total Pages592
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, & agam_aavashyak
File Size11 MB
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