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________________ १७० आवश्यक नियुक्ति ११. मनःपर्यवज्ञानी १४. चक्रवर्ती १२. पूर्वधर १५. बलदेव १३. तीर्थंकर १६. वासुदेव ६८, ६९. कुंए की मेंढ पर बैठे हुए वासुदेव को सांकल से बांधकर सोलह हजार राजा अपनी चतुरंगिणी सेना के साथ खींचें तो भी वह टस से मस नहीं होता लेकिन वासुदेव बांए हाथ से उस सांकल को खींचकर सोलह हजार राजाओं को पराजित कर देता है, नीचे गिरा देता है। ७०, ७१. कुंए की मेंढ पर बैठे हुए चक्रवर्ती को बत्तीस हजार राजा अपनी चतुरंगिणी सेना के साथ खींचें तो भी उसे अपनी ओर नहीं खींच पाते। लेकिन चक्रवर्ती बांए हाथ से उस सांकल को खींचकर बत्तीस हजार राजाओं को पराजित कर देता है, नीचे गिरा देता है। ७२. वासुदेव' के शारीरिक बल से चक्रवर्ती का बल दुगुना होता है। जिनेश्वर भगवान् चक्रवर्ती से भी अधिक बलशाली होते हैं क्योंकि वे अपरिमितबल वाले होते हैं, अनंत बल वाले होते हैं। ७३. मनःपर्यवज्ञान 'जन'२ अर्थात् संज्ञी पंचेन्द्रिय जीवों के मन द्वारा चिन्तित अर्थ को जानता है, प्रकाशित करता है। वह मनुष्य क्षेत्र तक प्रतिबद्ध होता है। यह गुण-प्रत्ययिक होता है अर्थात् इसकी उपलब्धि गुणों के कारण होती है। यह केवल चरित्रवान् संयमी के ही होता है।' ७४. जो सभी द्रव्यों, द्रव्य के परिणामों और भावों की विज्ञप्ति का कारण है, अनंत, शाश्वत और अप्रतिपाती है, एक ही प्रकार का है, वह केवलज्ञान है। ७५. तीर्थंकर केवलज्ञान से तत्त्वों को जानकर उन तत्त्वों में जो प्रज्ञापन योग्य हैं, उनका कथन करते हैं। यह उनका वाग्योग है। शेष द्रव्यश्रुत है। ७५/१. प्रस्तुत में श्रुतज्ञान का अधिकार है। श्रुतज्ञान से शेष ज्ञानों का तथा स्वयं (श्रुतज्ञान) का अनुयोग किया जाता है। वह प्रदीप की भांति स्व-पर प्रकाशी होता है। १. वासुदेव में बीस लाख अष्टापद का बल होता है। २. जायन्ते इति जनाः-लोकरूढितया नरा एव स्युः, परं संज्ञिपञ्चेन्द्रियग्रहणायैवं व्युत्पादनम्। (आवहाटी १ पृ. ३३ का टिप्पण) ३. मन:पर्यव ज्ञानी तिर्यग्लोक में संज्ञी जीवों द्वारा गृहीत मन रूप में परिणत द्रव्य मन की अनन्त पर्यायों तथा तद्गत वर्ण आदि भावों को जानता-देखता है। वह द्रव्यमन से प्रकाशित वस्तु-घट-पट आदि को अनुमान से जानता है। वह चिंतित पदार्थ को प्रत्यक्ष नहीं देखता, अनुमान से देखता है इसलिए उसकी पश्यत्ता बतलाई गयी है। मन का आलम्बन मूर्त, अमूर्त दोनों प्रकार के पदार्थ हो सकते है। छद्मस्थ अमूर्त को साक्षात् नहीं देख सकता (विभामहे गा. ८१३, ८१४, महेटी पृ. १९५)। ४. विभामहे गा. ८२८; पज्जायओ अणंतं, सासयमिटुं सदोवओगाओ। अव्वयओऽपडिवाई, एगविहं सव्वसुद्धीए॥ पर्याय अनंत होने से केवलज्ञान अनंत है। सदा उपयोगयुक्त होने से वह शाश्वत है। इसका व्यय नहीं होता इसलिए अप्रतिपाती है। आवरण की पूर्ण शुद्धि के कारण वह एक प्रकार का है। ५. देखें परि. ३ कथाएं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001927
Book TitleAgam 40 Mool 01 Aavashyak Sutra Part 01
Original Sutra AuthorBhadrabahuswami
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2001
Total Pages592
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, & agam_aavashyak
File Size11 MB
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