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________________ १६८ आवश्यक नियुक्ति ५९. स्पर्धक तीन प्रकार के होते हैं-आनुगामिक, अनानुगामिक तथा मिश्र। इनमें से प्रत्येक के तीनतीन प्रकार हैं-प्रतिपाति, अप्रतिपाति तथा मिश्र। मनुष्यों और तिर्यंचों के अवधिज्ञान में प्रतिपाति आदि तीनों प्रकार के स्पर्धक होते हैं। ६०. बाह्यअवधि की प्राप्ति होने पर जीव पूर्वदृष्ट द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव के कुछ हिस्से को जिस एक समय में नहीं देखता, उसी एक समय में कुछ अदृष्टपूर्व को देख लेता है। इस प्रकार एक ही समय में ज्ञान का उत्पाद और प्रतिपात होता है। ६१. आभ्यंतर अवधि की प्राप्ति में ज्ञान का उत्पाद और प्रतिपात–दोनों एक समय में नहीं होते। एक समय में उत्पाद अथवा प्रतिपात होता है। ६२. अवधिज्ञानी एक द्रव्य की उत्कृष्टतः असंख्येय अथवा संख्येय पर्यायों को देख सकता है और जघन्यतः एक द्रव्य की द्विगुणित दो पर्यायों को देख सकता है अर्थात् प्रत्येक द्रव्य के वर्ण, गंध, रस और स्पर्श-इन चार पर्यायों को देख सकता है, अनंत पर्यायों को नहीं। ६३. साकार-अनाकार अवधि और विभंग जघन्यतः तुल्य होते हैं। (भवनपति देवों से प्रारम्भ कर) उपरितन ग्रैवेयक तक के देवों का साकार-अनाकार अवधि और विभंग तुल्य होते हैं। उसके ऊपर के देवलोकों में अवधिज्ञान ही होता है और वह क्षेत्रतः असंख्येय योजन का होता है। ६४. नैरयिक, देव और तीर्थकर अबाह्य अवधिज्ञान वाले होते हैं अर्थात् वे सर्वतः देखते हैं। शेष मनुष्य और तिर्यंच एक देश से देखते हैं। ६५. क्षेत्र की अपेक्षा से अवधिज्ञान के दो प्रकार हैं-संबद्ध और असंबद्ध । जो अवधिज्ञान उत्पत्ति क्षेत्र से लेकर निरंतर व्यक्ति के साथ रहता है, वह संबद्ध अवधिज्ञान है और जो अवधिज्ञान पुरुष से अंतराल युक्त होता है, वह असंबद्ध अवधिज्ञान है । ये दोनों प्रकार के अवधिज्ञान क्षेत्र की अपेक्षा से संख्येय-असंख्येय १. जिस स्थान पर अवधिज्ञान उत्पन्न हुआ है, उसी स्थान पर अवधिज्ञानी कुछ नहीं देख पाता। उस स्थान से हटकर अंगुल, अंगुल पृथकत्व यावत् संख्येय योजन अथवा असंख्येय योजन दूर जाने पर देख पाता है, यह बाह्यलब्धि अवधिज्ञान है। (आवचू. १ पृ. ६२, ६३) टीकाकार के अनुसार अवधिज्ञानी अपने जिस ज्ञान से एक दिशा में स्थित पदार्थों को जानता है अथवा कुछ स्पर्धक विशुद्ध, कुछ स्पर्धक अविशुद्ध होने से अनेक दिशाओं में अंतर सहित जानता है अथवा क्षेत्रीय व्यवधान के कारण असंबद्ध जानता है, वह बाह्यअवधि कहलाता है। बाह्यावधि को देशावधि कहा जाता है (आवमटी. प. ३१२)। २. इस गाथा का तात्पर्य यह है कि प्रदीप की भांति आभ्यंतर अवधि का एक समय में या तो उत्पाद ही होगा या प्रतिपात ही होगा क्योंकि यह अप्रदेशावधि है। एक द्रव्य की एक ही पर्याय का उत्पाद और प्रतिपात एक समय में नहीं होता जैसे अंगुलि का फैलना और सिकुड़ना एक साथ नहीं हो सकता (आवहाटी. १ पृ. ३०)।। ३. ग्रैवेयक विमानों से ऊपर पांच अनुत्तरविमान में अवधिज्ञान ही होता है, विभंगअज्ञान नहीं क्योंकि अनुत्तर विमानों के देव सम्यग्दृष्टि ही होते हैं। ४. नारक, देव और तीर्थंकर अवधि से अबाह्य होते हैं। इसका तात्पर्य यह है कि इनके नियमतः अवधि होता है और ये सब ओर से देखते हैं। इसके अतिरिक्त इनका अवधिज्ञान भवप्रत्ययिक तथा मध्यगत होता है। मध्यगत अवधिज्ञान में ही सर्वत: देखने की शक्ति होती है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001927
Book TitleAgam 40 Mool 01 Aavashyak Sutra Part 01
Original Sutra AuthorBhadrabahuswami
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2001
Total Pages592
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, & agam_aavashyak
File Size11 MB
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