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________________ आवश्यक निर्युक्ति १६७ ५५. क्षेत्र और काल की दृष्टि से अनुत्तर देवों में अवधिज्ञान की अवस्थिति तेतीस सागर की होती है । द्रव्य की दृष्टि से उपयोग की अपेक्षा अन्तर्मुहूर्त्त और एक पर्याय' में सात-आठ समय तक अवस्थिति होती है। ५६. लब्धि की दृष्टि से अवधिज्ञान का कालिक अवस्थान कुछ अधिक छासठ सागरोपम का होता है। यह काल से उत्कृष्ट अवस्थान है । जघन्यतः वह एक समय का होता है। ५७. अवधिज्ञान के विषयभूत क्षेत्र और काल में वृद्धि - हानि चार प्रकार की होती है । द्रव्यों में वृद्धि-हानि दो प्रकार की तथा पर्यायों में वृद्धि हानि छह प्रकार की होती है । " ५८. एक जीव के अवधिज्ञान के स्पर्धक' असंख्येय अथवा संख्येय होते हैं। एक स्पर्धक का उपयोग करने वाला जीव निश्चित रूप से एक साथ सभी स्पर्धकों का उपयोग करता है । १. आवहाटी १ पृ. २८; अन्ये तु व्याचक्षते पर्यायेषु सप्त, गुणेषु अष्टेति - टीकाकार ने इस संदर्भ में मतान्तर प्रस्तुत करते हुए कहा है कि पर्याय में सात समय तथा गुण में आठ समय की अवस्थिति होती है। २. अवधिज्ञानी का एक द्रव्य में अन्तर्मुहूर्त्त तक निरंतर उपयोग रह सकता है। उससे आगे वह निरोध नहीं कर सकता इसलिए उस द्रव्य में अन्तमुहूर्त्त से अधिक अवस्थित नहीं रह सकता। जैसे कोई व्यक्ति अत्यन्त सूक्ष्म सूई के पार्श्वछिद्र में लम्बे समय तक निरंतर नहीं देख सकता । द्रव्य के पर्यायों का ज्ञान तीव्रतर उपयोग (सघन एकाग्रता ) से होता है । वह अवधिज्ञान तीव्रतर उपयोग से होने वाले निरोध को सहन नहीं कर सकता अतः वह उस पर्याय में सात-आठ समयों से अधिक अवस्थित नहीं रह सकता ( आवचू १ पृ. ५८ ) । ३. जो जीव विजय आदि अनुत्तर विमानों में दो बार उत्पन्न होता है, उसकी अपेक्षा से अवधि की अवस्थिति छासठ सागरोपम है। मनुष्य जन्म की स्थिति साथ मिलाने से वह कुछ अधिक हो जाती है (विभामहे गा. ७२५) । ४. क्षेत्र और काल की वृद्धि-हानि के चार भेद इस प्रकार हैं (क) असंख्यात भाग वृद्धि, असंख्यात भाग हानि । (ख) संख्यात भाग वृद्धि, संख्यातभाग हानि । (ग) संख्यातगुण वृद्धि, संख्यातगुण हानि । (घ) असंख्यातगुण वृद्धि, असंख्यातगुण हानि । द्रव्य की वृद्धि हानि के दो भेद इस प्रकार हैं(क) अनन्तभाग वृद्धि, अनन्तभाग हानि । (ख) अनन्तगुण वृद्धि, अनन्तगुण हानि । पर्याय की वृद्धि हानि के छह भेद इस प्रकार हैं(क) अनन्तभाग वृद्धि, अनन्तभाग हानि । (ख असंख्यात भाग वृद्धि, असंख्यातभाग हानि । (ग) संख्यातभाग वृद्धि, संख्यातभाग हानि । (घ) संख्यातगुण वृद्धि, संख्यातगुण हानि । (ङ) असंख्यातगुण वृद्धि, असंख्यातगुण हानि । (च) अनन्तगुण वृद्धि, अनन्तगुण हानि (विभा महेटी पृ. १८० ) । ५. स्पर्धक का अर्थ है - शरीर में स्थित अवधिज्ञान के निर्गमन के द्वार। जैसे जाली से ढके दीपक से ज्योति-रश्मियां बाहर निकलती हैं, स्पर्धक उस जाली के समान होते हैं। ६. जैसे एक आंख से देखने वाला व्यक्ति दोनों आंखों से उपयुक्त होता है, उसी प्रकार एक स्पर्धक का उपयोग करना सब स्पर्धकों का उपयोग करना है (विभामहे गा. ७४१ ) । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001927
Book TitleAgam 40 Mool 01 Aavashyak Sutra Part 01
Original Sutra AuthorBhadrabahuswami
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2001
Total Pages592
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, & agam_aavashyak
File Size11 MB
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