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________________ १६६ आवश्यक नियुक्ति भवनपति और व्यंतर देवों के अवधिज्ञान का जघन्य क्षेत्र पच्चीस योजन परिमाण होता है। ५१. (द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की अपेक्षा से उत्कृष्ट अवधिज्ञान) परम अवधिज्ञान मनुष्यों में ही होता है तथा जघन्य (गाथा २८ गत) अवधिज्ञान मनुष्य और तिर्यंचों में ही होता है, नारक और देवों में नहीं। (मध्यम अवधिज्ञान चारों गतियों के जीवों में होता है।) उत्कृष्ट अवधिज्ञान संपूर्ण लोकप्रमाण होता है, प्रतिपाति अवधिज्ञान की सीमा वहीं तक है, उससे आगे वह अप्रतिपाती होता है। ५२. जघन्य अवधि का संस्थान स्तिबुकाकार-जल बिन्दु के आकार जैसा होता है। उत्कृष्ट अवधिज्ञान का संस्थान लोक की अपेक्षा आयत-वृत्ताकार होता है। अजघन्य-अनुत्कृष्ट अर्थात् मध्यम अवधिज्ञान का संस्थान अनेक प्रकार का होता है। ५३. मध्यम अवधिज्ञान का संस्थान अनेक प्रकार का होता है-नारकजीवों का अवधिज्ञान तप्राकार-नौका के संस्थान वाला, भवनपति देवों का पल्लक-धान्यकोष्ठ के संस्थान वाला, व्यंतर देवों का पटहक जैसे संस्थान वाला, ज्योतिष्क देवों का झल्लरी जैसे संस्थान वाला, सौधर्म आदि कल्पवासी देवों का मृदंग जैसे संस्थान वाला, ग्रैवेयक देवों का पुष्पचंगेरी जैसे संस्थान वाला तथा अनुत्तरविमानवासी देवों का अवधिज्ञान यवनालक (कन्याचोलक) जैसे संस्थान वाला होता है। (ये सारे संस्थान नियत हैं।) तिर्यंच और मनुष्य का अवधिज्ञान अनेकविध संस्थानों वाला होता है। ५४. नैरयिक और देवों का अवधिज्ञान आनुगामिक होता है। मनुष्य और तिर्यञ्चों का अवधिज्ञान आनुगामिक, अनानुगामिक तथा मिश्र अर्थात् एकदेशानुगमनशील–तीनों प्रकार का होता है। १. ज्योतिष्क देवों का जघन्य और उत्कृष्ट अवधिक्षेत्र संख्येय योजन ही होता है क्योंकि उनका जघन्य आयुष्य पल्योपम का आठवां भाग तथा उत्कष्ट आयष्य एक लाख वर्ष अधिक एक पल्योपम का होता है (विभामहे ७०१ महेटी प. १७६)। २. प्रतिपाति अवधिज्ञान देशावधि होता है, क्योंकि इसका उत्कृष्ट विषय संपूर्ण लोक है। जो अलोक के एक प्रदेश को भी देख लेता है, वह अवधिज्ञान प्रतिपाति नहीं होता। सर्वावधि उससे भी आगे जानता है इसलिए परमावधि और सर्वावधि-दोनों अप्रतिपाति हैं (नंदी सूत्र २०,२१)। ३. आवनि २८ में अवधिज्ञान का जघन्य क्षेत्र तीन समय का आहारक सूक्ष्म पनक जीव जितना बताया है किन्तु इस गाथा में अवधिज्ञान का संस्थान जलबिन्दु बताया गया है। यहां क्षेत्रपरिमाण और संस्थान की दृष्टि से यह अंतर है कि क्षेत्र परिमाण ज्ञेय की दृष्टि से बतलाया गया है, जबकि संस्थान ज्ञान के आकार की दृष्टि से ज्ञातव्य है। ४. आवश्यक नियुक्ति के व्याख्याकारों ने अवधिज्ञान के संस्थानों को शरीरगत संस्थान नहीं माना है। गोम्मटसार और धवला में इन्हें शरीरगत संस्थान माना है। शरीरगत संस्थान का मत अधिक उपयुक्त लगता है। ५. आवहाटी १ पृ. २८; पल्लको नाम लाटदेशे धान्यालय:-लाट देश में होने वाला धान्यागार पल्लक कहलाता है, । ६. आवहाटी १ पृ.२८; चर्मावनद्धा विस्तीर्णवलयाकारा झल्लरी आतोद्यविशेष:-चमड़े से अवनद्ध लम्बी और वलयाकार आतोद्यविशेष झल्लरी कहलाती है। ७. भवनपति और व्यंतरदेवों के ऊर्ध्वलोकगत अवधि अधिक होता है, शेष देवों का अधोलोकगत, ज्योतिष्क तथा नारकों का तिर्यग्लोकगत, मनुष्य और तिर्यञ्चों का विविध प्रकार का अवधिज्ञान होता है। (विभामहे ७१३, आवहाटी १५ ८. स्वयंभूरमण समुद्र के मत्स्यों की भांति तिर्यञ्च और मनुष्यों का अवधिज्ञान नाना संस्थान वाला होता है। उन मत्स्यों में वलयाकार मत्स्य नहीं होते किन्तु तिर्यञ्च और मनुष्यों के अवधिज्ञान का संस्थान वलयाकार भी होता है (विभामहे गा.७१२) । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001927
Book TitleAgam 40 Mool 01 Aavashyak Sutra Part 01
Original Sutra AuthorBhadrabahuswami
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2001
Total Pages592
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, & agam_aavashyak
File Size11 MB
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