SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 224
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ आवश्यक नियुक्ति १६५ उत्सर्पिणी-अवसर्पिणी को जानता है। द्रव्य से सब मूर्त द्रव्यों को जानता है। उसका क्षेत्रोपमान सर्वबहु अग्निजीवों के समान है। ४४. तिर्यञ्चयोनिक जीवों को जो उत्कृष्ट अवधिज्ञान होता है, वह द्रव्य से औदारिक, वैक्रिय, आहारक और तैजस का परिच्छेदक होता है। क्षेत्र की अपेक्षा नरक में अवधिज्ञान जघन्यत: आधा गाऊ तथा उत्कृष्टतः एक योजन (चार गव्यूत) का होता है। यह वर्णन समुच्चय की अपेक्षा से है। ४५. नरकावासों में उत्कृष्ट और जघन्य अवधिज्ञान की क्षेत्र-सीमा इस प्रकार हैनरकावास उत्कृष्ट अवधिक्षेत्र जघन्य अवधिक्षेत्र रत्नप्रभा चार गव्यूत साढे तीन गव्यूत शर्कराप्रभा साढे तीन गव्यूत तीन गव्यूत बालुकाप्रभा तीन गव्यूत ढाई गव्यूत पंकप्रभा ढाई गव्यूत दो गव्यूत धूमप्रभा दो गव्यूत डेढ गव्यूत तमःप्रभा डेढ गव्यूत एक गव्यूत महातम:प्रभा एक गव्यूत अर्ध गव्यूत ४६-४८. सौधर्म और ईशान कल्पवासी देव अवधिज्ञान के द्वारा प्रथम नरक तक, सनत्कुमार और माहेन्द्र कल्पवासी देव दूसरी नरक तक, ब्रह्म और लान्तक कल्पवासी देव तीसरी नरक तक, शुक्र और सहस्रार कल्पवासी देव चौथी नरक तक, आनत और प्राणत कल्पवासी देव पांचा नरक देवलोक के देव भी पांचवीं नरक तक देखते हैं। अधस्तन तथा मध्यम ग्रैवेयक देव छठी नरक तक तथा उपरितन ग्रैवेयक के देव सातवीं नरक तक देखते हैं। अनुत्तर देवलोक के देव अवधिज्ञान से संभिन्नलोकनाड़ी अर्थात् संपूर्णलोक को देखते हैं। ४९. वैमानिक देव अवधिज्ञान से तिर्यक्लोक में असंख्य द्वीप-समुद्रों को देख लेते हैं तथा ऊर्ध्वलोक में अपने-अपने कल्प के स्तूप ध्वजा आदि को देखते हैं। ५०. अर्द्ध सागरोपम से न्यून आयुष्य वाले देवों का अवधिक्षेत्र संख्येय योजन का होता है। इससे अधिक आयुष्य वाले देवों का अवधिक्षेत्र असंख्येय योजन का होता है। दस हजार वर्ष की जघन्य स्थिति वाले १. देखें गाथा २९ का अनुवाद एवं टिप्पण। २. तिर्यञ्च जीव अवधिज्ञान से औदारिक, वैक्रिय आदि द्रव्यों के अन्तरालवर्ती द्रव्यों को भी जानते हैं। वे जघन्यतः औदारिक शरीर को जानते हैं। कर्म शरीर को वे न जानते हैं और न देखते हैं (विभामहे गा. ६९१)। व १ प. ५४: जो जं पढविं देवो ओहिणा जाणति पासति सो तीए पढवीए सकातो सरीराओ आरब्भ जाव हिट्रिल्लो चरिमंतो ताव णिरंतरं संभिण्णं पव्वयकुडादीहिं णिरावरणं ओहिणा जाणति पासति-जो देवता जिस पृथ्वी को अवधिज्ञान से जानता-देखता है, वह अपने शरीर से प्रारम्भ कर उस पृथ्वी के अधस्तलवर्ती चरमान्त तक जानता-देखता है। उसका ज्ञान निरन्तर पूर्ण होता है। उसमें पर्वत, भींत आदि का व्यवधान नहीं होता। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org:
SR No.001927
Book TitleAgam 40 Mool 01 Aavashyak Sutra Part 01
Original Sutra AuthorBhadrabahuswami
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2001
Total Pages592
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, & agam_aavashyak
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy