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________________ १६४ आवश्यक नियुक्ति और कार्मणवर्गणा-यह द्रव्य वर्गणाओं का क्रम है। इसके विपर्यास से क्षेत्रविषयकवर्गणा का क्रम जानना चाहिए। ३८. कर्मवर्गणा के रूप में ग्रहण के अयोग्य चौदह वर्गणाएं ये हैं-१. ध्रुववर्गणा, २. अध्रुववर्गणा, ३. शून्यांतर वर्गणा, ४. अशून्यांतर वर्गणा, ५-८. चार ध्रुवानन्तर वर्गणाएं, चार तनुवर्गणाएं-९. औदारिक, १०. वैक्रिय, ११. आहारक और १२. तैजस, १३. मिश्रस्कन्ध वर्गणा १४. अचित्तस्कन्ध वर्गणा (अचित्तमहास्कन्ध)। ३९. औदारिक, वैक्रिय, आहारक तथा तैजस-ये चार वर्गणाएं गुरुलघु तथा कार्मण, मन, भाषा और आनापान-ये चार वर्गणाएं अगुरुलघु होती हैं। ४०. मनोद्रव्य का परिच्छेदक अवधिज्ञान क्षेत्र से लोक के संख्येय भाग को तथा काल से पल्योपम के संख्येय भाग को जानता है। कर्मद्रव्य का परिच्छेदक अवधिज्ञान क्षेत्र से लोक का संख्येय भाग तथा काल से पल्योपम के संख्येय भाग को जानता है। संपूर्ण लोक का परिच्छेदक अवधिज्ञान काल से देशोन (कुछ न्यून) पल्योपम को देखता-जानता है। ४१. तैजसशरीर, कार्मणशरीर, तैजसद्रव्य और भाषाद्रव्य को जानने वाला अवधिज्ञान क्षेत्र से असंख्येय द्वीप-समुद्रों तथा काल से असंख्येय काल को जानता है। ४२. परम अवधिज्ञानी एक प्रदेशावगाढ (एक प्रदेश में अवस्थित) परमाणु यावत् अनंतप्रदेशी स्कंध, कार्मणशरीर तथा गुरुलघु-अगुरुलघु द्रव्यों को देखता है। जो अवधि तैजस शरीर को देखता है, वह काल से भव-पृथक्त्व (दो से नौ भवों) को देखता है। ४३. परम अवधिज्ञान क्षेत्र से असंख्येय लोक-परिमित खंडों को जानता है। काल से वह असंख्येय १. विवरण के लिए देखें परि. ३ कथा सं. १ । २. ध्रुव वर्गणाएं सदा नियत होती हैं। अध्रुव वर्गणाएं कभी होती हैं, कभी नहीं भी होतीं। एक-एक परमाणु की वृद्धि होने पर शून्यान्तर वर्गणाएं होती हैं। ये निरंतर अनंत रहती हैं। इनमें एक-एक परमाणु की वृद्धि होने पर अशून्यान्तर वर्गणाएं होती हैं । ये लोक में निरंतर रहती हैं। इनके परमाणुओं की वृद्धि के क्रम में कभी व्यवधान नहीं आता। ध्रुवानन्तर वर्गणाएं त्रिकाल में रहती हैं, ये अनंत हैं। इनमें निरंतर एक-एक परमाणु की वृद्धि होती रहती है। इनका परिणमन अत्यन्त सूक्ष्म होता है। चार ध्रुवानन्तर वर्गणाओं के पश्चात् एक-एक परमाणु की वृद्धि से युक्त अनंत वर्गणात्मक चार तनुवर्गणाएं हैं । जो सूक्ष्म परिणमन वाली किंचित् स्थूल परिणमन के अभिमुख है तथा अनंन्त-अनंत परमाणुओं से उपचित है, वह मिश्र वर्गणा है। अचित्तमहास्कन्ध समुद्र वेला की भांति दुस्तर, विशाल एवं नियत है। (विभामहे गा. ६३९-४२) विशेषावश्यक भाष्य में एक प्रश्न उपस्थित किया गया है कि एक प्रदेशावगाढ़ परमाणु आदि सूक्ष्म वस्तुओं को जानने वाला परमावधि कार्मण शरीर आदि स्थूल वस्तुओं को जानता ही है फिर कर्मशरीर को स्वतंत्र रूप से क्यों ग्रहण किया गया है? इसका समाधान देते हुए कहा गया है कि जो सूक्ष्म परमाणु को देखता है, वह बादर कार्मण शरीर आदि को देखे अथवा जो बादर को देखता है, वह सूक्ष्म को अवश्य देखे, यह कोई नियम नहीं है। सूक्ष्मतर पदार्थों को जानने वाला अवधिज्ञानी घट आदि स्थूल पदार्थों को नहीं जानता। जैसे मनःपर्यवज्ञानी सूक्ष्म मनोद्रव्य को जानता है पर शेष अतिस्थूल पदार्थों को नहीं जानता (विभामहे गा. ६७८-८१ महेटी पृ. १७३)। ४. भवपृथक्त्व के मध्य किसी भव में यदि उसे अवधिज्ञान उत्पन्न हुआ हो तो उस अवधिज्ञान से दृष्ट पूर्व भवों की उसे स्मृति होती है, उनका साक्षात् नहीं होता (विभामहे गा. ६७७)। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001927
Book TitleAgam 40 Mool 01 Aavashyak Sutra Part 01
Original Sutra AuthorBhadrabahuswami
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2001
Total Pages592
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, & agam_aavashyak
File Size11 MB
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