________________
आवश्यक नियुक्ति
१६३ है। अंगुल जितने क्षेत्र को देखने वाला भिन्न (अपूर्ण) आवलिका तक देखता है। काल की दृष्टि से एक आवलिका तक देखने वाला क्षेत्र की दृष्टि से अंगुलपृथक्त्व (दो से नौ अंगुल) क्षेत्र को देखता है। ३१. एक हाथ जितने क्षेत्र को देखने वाला अंतर्मुहूर्त जितने काल तक देखता है। एक गव्यूत क्षेत्र को देखने वाला अंतर्दिवस काल (एक दिन से कुछ न्यून) तक देखता है। एक योजन क्षेत्र को देखने वाला दिवसपृथक्त्व (दो से नौ दिवस) काल तक देखता है। पचीस योजन क्षेत्र को देखने वाला अंत:पक्षकाल (कुछ कम एक पक्ष) तक देखता है। ३२. भरत जितने क्षेत्र को देखने वाला अर्द्धमास काल तक देखता है। जंबूद्वीप जितने क्षेत्र को देखने वाला साधिक मास (एक महीने से कुछ अधिक) काल तक देखता है। मनुष्य लोक जितने क्षेत्र को देखने वाला एक वर्ष तक देखता है । रुचकद्वीप जितने क्षेत्र को देखने वाला वर्षपृथक्त्व (दो से नौ वर्ष) तक देखता है। ३३. संख्येय काल तक देखने वाला संख्येय द्वीप-समुद्र जितने क्षेत्र को देखता है। असंख्येय काल तक देखने वाला असंख्येय द्वीप-समुद्र जितने क्षेत्र को देख सकता है पर इसमें नियामकता नहीं है। ३४. (अवधिज्ञान के प्रसंग में) कालवृद्धि के साथ द्रव्य, क्षेत्र और भाव की वृद्धि निश्चित होती है। क्षेत्रवृद्धि में कालवृद्धि की नियामकता नहीं है। द्रव्य और पर्याय की वृद्धि होने पर क्षेत्र और काल की वृद्धि में भजना है। ३५. काल सूक्ष्म होता है लेकिन क्षेत्र उससे सूक्ष्मतर होता है। अंगुलश्रेणिमात्र आकाश-प्रदेश का परिमाण असंख्येय अवसर्पिणी की समय राशि जितना होता है। ३६. अवधिज्ञानी प्रारंभ में तैजसवर्गणा और भाषावर्गणा के अंतरालवर्ती गुरुलघु और अगुरुलघु पर्याय वाले द्रव्य-पुद्गलों को जानता है। वे पुद्गल तैजस और भाषा के अयोग्य होते हैं। उनमें तैजसद्रव्यासन्न पुद्गल गुरुलघु और भाषाद्रव्यासन्न पुद्गल अगुरुलघु होते हैं। प्रतिपाति अवधिज्ञान उतने द्रव्य को देख-जानकर समाप्त हो जाता है। ३७. औदारिकवर्गणा, वैक्रियवर्गणा, आहारकवर्गणा, तैजसवर्गणा, भाषावर्गणा, आनापानवर्गणा, मनोवर्गणा १. क्षेत्र अत्यन्त सूक्ष्म है। उसकी अपेक्षा काल स्थूल है। यदि अवधिज्ञान की क्षेत्रवृद्धि होती है तो कालवृद्धि भी होती
है। द्रव्य क्षेत्र से भी अधिक सूक्ष्म होता है क्योंकि एक आकाश प्रदेश में भी अनंत स्कंधों का अवगाहन हो सकता है। पर्याय द्रव्य से भी सूक्ष्म है क्योंकि एक ही द्रव्य में अनंत पर्याय होती हैं। द्रव्य की वृद्धि होने पर पर्याय की वृद्धि निश्चित है। अवधिज्ञानी प्रत्येक द्रव्य की संख्येय और असंख्येय पर्यायों को जानता है। पर्यायवृद्धि होने पर
द्रव्यवृद्धि की भजना है-वृद्धि होती भी है और नहीं भी होती। २. चूर्णिकार ने प्रस्तुत गाथा को महान् अर्थयुक्त तथा दुरधिगम माना है। वे कहते हैं कि आचार्य ने इसीलिए अगली
गाथा के माध्यम से इसके अर्थ की सुगमता को दर्शाया है (आवचू १ पृ. ४४)। ३. अति सूक्ष्म होने से तैजस शरीर के द्रव्य ग्रहण प्रायोग्य नहीं होते और अति सूक्ष्म होने के कारण भाषा के द्रव्य भी
ग्रहण प्रायोग्य नहीं होते। तैजस और भाषा के अन्तरालवर्ती द्रव्य गुरुलघु और अगुरुलघु-दोनों हैं । वे ही अवधिज्ञान के ग्रहण प्रायोग्य होते हैं। (विभामहे गा. ६२८, ६२९)
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org