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________________ ६४ आवश्यक नियुक्ति २११. पंच य पुत्तसयाई, भरहस्स य ‘सत्त नत्तुयसयाई। सयराहं पव्वइता, तम्मि कुमारा समोसरणे ॥ २११/१. भवणवति-वाणमंतर-जोइसवासी-विमाणवासी य। सव्विड्डीइ सपरिसा, कासी नाणुप्पयामहिमं ॥ २११/२. दट्ठण कीरमाणिं', महिमं देवेहि खत्तिओ मरिई। सम्मत्तलद्धबुद्धी, धम्मं सोऊण पव्वइओ ॥ २११/३. सामाइयमाईयं, एक्कारसमाउ जाव अंगाओ। उज्जुत्तो भत्तिगतो, अहिज्जितो सो गुरुसगासे ॥ २१२. मागहमादी विजओ, 'सुंदरिपव्वज बारसभिसेओ' १२ । 'आणवण भाउगाणं, समुसरणे' १३ पुच्छ दिटुंतो" ।। २१३. बाहुबलिकोवकरणं५, निवेदणं चक्कि'६ देवताकहणं। नाहम्मेणं जुज्झे, दिक्खा पडिमा पतिण्णा य॥ १. पत्त नत्तूसयाइं (अ)। २. सयराहमिति देशीवचनं युगपदर्थाभिधायकं त्वरिताभिधायक वेति मटी। ३. स्वो २७१/१७१० ४. 'वई (म)। ५. सव्विड्डिइ (ब, दी, हा), ड्डीई (म)। ६. सपुरि (अ)। ७. स्वो २७२/१७११, २११/१, २ ये दोनों गाथाएं व्याख्या ग्रंथों में निगा के क्रम में उल्लिखित हैं किन्तु चूर्णि में इनका कोई उल्लेख नहीं है। यहां ये गाथाएं प्रक्षिप्त सी लगती हैं। विषयवस्तु की दृष्टि से भी ये क्रमबद्ध नहीं लगती। ८. 'माणी (स)। ९. मिरीयी (स्वो २७३/१७१२), मिरीई (को)। १०. इस गाथा के बाद सभी हस्तप्रतियों में निम्न अन्यकर्तकी गाथा मिलती है मागह-वरदाम पभास, सिंधु खंडप्पवायतमिसगुहा। सटुिं वाससहस्से, ओयविउं आगओ भरहो॥ ११. “सगासि (को), स्वो २७४/१७१३, यह गाथा दोनों भाष्यों में निगा के क्रम में उल्लिखित है। टीकाओं में यह अह अन्नया...(गा. २१५) से पूर्व भाष्य गाथा (हाटीभा ३७) के क्रम में व्याख्यात है। चूर्णि में बाहुबलि......(गा. २१३) के बाद इसका संक्षिप्त भावार्थ मिलता है । (द्र. टिप्पण २१४) १२. "रिउवरोध (स्वो), बारसभिसेय सुंदरीदिक्खा (स, दी)। १३. आगमण भातुआणं ओसरणे (स्वो)। १४. स्वो २७५/१७१४। १५. कोध (स्वो)। १६. चक्क (अ, ब)। १७. स्वो (२७६/१७१५, इस गाथा के बाद पढमंदिट्ठीजुद्धं....(स्वो १७१६, को १७२६, हाटीभा ३२) तथा सो एवं.....(स्वो १७१७, को १७२७, हाटीभा ३३) ये दो मूल भाष्य गाथाएं मिलती हैं। हस्त प्रतियों में इन गाथाओं के बाद निम्न दो अन्यकर्तृकी गाथाएं मिलती हैं ताहे चक्कं मणसीकरेइ पत्ते य चक्करयणम्मि। बाहुबलिणा य भणियं, धिरत्थु रज्जस्स तो तुझं। चिंतेइ य सो मझं, सहोयरा पुवदिक्खिया नाणी। अहयं केवलि होउं, वच्चेहामी ठिओ पडिमं॥ इन दो गाथाओं के बाद संवच्छरेण....से लेकर सामाइयमादीयं (स्वो १७१८-२१, को १७२८-३१, हाटीभा ३४-३७) तक की चार मूल भाष्य गाथाएं मिलती हैं। टीकाकार हरिभद्र ने इन गाथाओं के लिए भाष्यगाथा का उल्लेख किया हैं। छठी 'सामाइयमादीयं' गाथा को हमने निगा के क्रम में जोड़ा है। (देखें टिप्पण २१४ गा. का) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001927
Book TitleAgam 40 Mool 01 Aavashyak Sutra Part 01
Original Sutra AuthorBhadrabahuswami
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2001
Total Pages592
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, & agam_aavashyak
File Size11 MB
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