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________________ आवश्यक निर्युक्ति २१४. २१५. Jain Education International २१६. २१७. २१८. २१९. २२०. २२१. २२२. अंगाओ। सामाइयमाईयं, एक्कारसमाउ जाव उज्जुत्तो भत्तिगतो, अहिज्जितो सो गुरुसगासे ॥ अह अन्नया कयाई, गिम्हे उन्हेण परिगयसरीरो । अण्हाणएण चइओ, इमं कुलिंगं विचिंते ॥ मेरुगिरीसमभारे, न हुमिरे समत्थो सामण्णए गुणे गुणरहितो एवमणुचिंतयंतस्स, तस्स नियगा मती समुप्पण्णा । लद्धो मए उवाओ, जाता मे सासता बुद्धी ॥ समणा तिदंडविरता, भगवंतो निहुयसंकुचितगत्ता' । अजिइंदियदंडस्स तु, होउ तिदंडं महं चिंधं ॥ लोइंदियमुंडा संजता उ अहगं खुरेण ससिहो य। थूलगपाणिवहाओ, वेरमणं मे सया होउ ॥ १. यह गाथा दोनों भाष्यों में दट्ठण..... (२११/२) के बाद निगा के क्रम में उल्लिखित है। किन्तु वहां विषयवस्तु की दृष्टि से अप्रासंगिक सी लगती है। हा, म और दी में यह गाथा मूलभाष्य (हाटीभा ३७ ) के क्रम में मिलती है। दोनों भाष्यों में भी यह गाथा भाष्यगाथा (स्वो १७२१, को १७३१) के क्रम में पुनरुक्त हुई है। चूर्णि में बाहुबलि..... (२१३) की व्याख्या के बाद इस गाथा की संक्षिप्त व्याख्या मिलती है। इसके साथ वाली पांच भाष्यगाथाओं का वहां कोई उल्लेख नहीं है अतः हमने चूर्णि के क्रम को संगत मानकर इस गाथा को यहां निगा के क्रम में जोड़ा है। इस गाथा को यहां निगा के क्रम में न जोड़ने से बाहुबलि (२१३) के बाद अह अन्नया (२१५) की गाथा का संबंध नहीं बैठता है । देखें गा. २११ / ३ का टिप्पण । निक्किंचणा य समणा, अकिंचणा मज्झ किंचणं होउ । सीलसुगंधा समणा, अहयं सीलेण दुग्गंधो ॥ ववगतमोहा समणा, मोहच्छण्णस्स छत्तयं होउ । अणुवाणहा" य समणा, मज्झं तु" उवाणहा १२ होंतु १३ ॥ सुक्कंबरा य समणा, निरंबरा मज्झ धाउरत्ताइं । होंतु इमे ४ वत्थाई, अरिहो मि५ कसायकलुसमती" ॥ २. स्वो २७७ / १७२२ । ३. हुम (अ, रा), हुवि (म) । ४. स्वो २७८ / १७२३, इसका उत्तरार्ध विभा में इस प्रकार है मुहुत्तमवि वोढुं । संसारमणुकखी ॥ गुणरहिओ, अगं संसारमणुकंखी ( को ) सामण्णए गुणो गुणरहितो अहयं संसार० (स्वो) ५. स्वो २७९ / १७२४ । ६. चियअंगा ( अ, ब, म, हा, दी ) । ७. ममं (स्वो २८०/१७२५) । ८. स्वो २८१ / १७२६ । ९. स्वो २८२ / १७२७ । १०. वाहणा ( अ, ब, स, हा, दी ) । ११. च (रा, ला) 1 १२. वाहणा ( अ, ब, स, हा, दी ) । १३. हुतं (स), स्वो २८३ / १७२८ । १४. य मे (को) । १५. मे (अ, रा, हा), स्वो २८४ / १७२९ । १६. इस गाथा का उत्तरार्ध स्वो में इस प्रकार है अरिहा कासाईओ, कसायकलुसाउलमतिस्स | For Private & Personal Use Only ६५ www.jainelibrary.org
SR No.001927
Book TitleAgam 40 Mool 01 Aavashyak Sutra Part 01
Original Sutra AuthorBhadrabahuswami
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2001
Total Pages592
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, & agam_aavashyak
File Size11 MB
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