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________________ आवश्यक नियुक्ति २०१. २०5. २००. संवच्छरेण भिक्खा, लद्धा उसभेण लोगनाहेण। सेसेहि बितियदिवसे, लद्धाओ पढमभिक्खाओ ॥ उसभस्स तु ‘पारणए, इक्खुरसो'२ आसि लोगनाहस्स। सेसाणं परमण्णं, अमयरसरसोवमं आसी ॥ २०२. घुटुं च अहोदाणं, दिव्वाणि य आहताणि तूराणि। देवा य संनिवइया, वसुहारा चेव वुट्ठा य॥ गयपुर ‘सेजसो खोयरसदाणं'५ वसुहार-पीढ-गुरुपूया। तक्खसिलायलगमणं, बाहुबलिनिवेयणं चेव ॥ २०३/१. हत्थिणपुरं अयोज्झा, सावत्थी 'चेव तह य८ साकेयं। विजयपर बंभथलयं, पाडलिसंडं पउमसंडं ॥ २०३/२. सेयपुरं५५ रिट्ठपुरं, सिद्धत्थपुरं१२ महापुरं चेव। धण्णकड वद्धमाणं, सोमणसं मंदिरं चेव ।। २०३/३. चक्कपुरं रायपुरं, मिहिला रायगिहमेव बोधव्वं । वीरपुरं बारवती, कोवकडं३ कोल्लयग्गामो ॥ २०३/४. एतेसु पढमभिक्खा, लद्धाओ जिणवरेहि सव्वेहिं । दिण्णाउ जेहि पढमं, तेसिं ‘नामाणि वोच्छामि १५ ॥ २०३/५. सेजंस बंभदत्ते, सुरेंददत्ते य६ इंददत्ते य। पउमे य सोमदेवे, महिंद तह सोमदत्ते य॥ १. समप्र २३०/१, स्वो २५७/१६९६ । २. खोतरसो पारणए (स्वो, को), पढमभिक्खा खोयरसो (समप्र)। ३. आसि (म, स्वो २५८/१६९७), समप्र २३०/२। ४. स्वो २५९/१६९८, भाष्य, टीका तथा सभी हस्तप्रतियों में (२०० २०२) ये तीनों गाथाएं निगा के क्रम में मिलती हैं। किन्तु चूर्णि में भगवं.....(गा.१९९) के बाद गयपुर (२०३) गाथा का संकेत मिलता है। विषयवस्तु की दृष्टि से चूर्णि का क्रम संगत लगता है क्योंकि ये तीनों गाथाएं व्याख्यात्मक सी प्रतीत होती हैं। ५. सिजंसिक्खुरसदाण (ब, रा, ला, हा, दी)। ६. पेढ (अ, रा, ला)। ७. स्वो २६०/१६९९। ८. तह य चेव (अ, ब, रा, हा, दी)। ९. बम्ह' (म)। १०. २०३/१-१२ तक की १२ गाथाओं का दोनों भाष्यों तथा चूर्णि में उल्लेख नहीं है। स्वो, में ये गाथाएं पादटिप्पण में हैं। ये गाथाएं प्रसंगवश यहां जोड़ दी गई हैं क्योंकि गा. २०२ में पारणे में वसुधारा की वृष्टि का तथा गा. २०१ में किस तीर्थंकर को प्रथम पारणे में क्या प्राप्ति हुई, इसका उल्लेख आ चुका है। २०३/१-१२-इन बारह गाथाओं में प्रथम दानदाता, उनके नगर तथा उनकी गति का वर्णन है। ये सब गाथाएं यहां व्याख्यात्मक प्रतीत होती हैं। ११. सीह" (स)। १२. सिद्धपुरं (ब)। १३. कोअगडं (ब, रा, हा, दी)। १४. कुल्लग्गामो (अ)। १५. वुच्छामि नामाणि (अ)। १६. x (अ)। १७. समप्र (२२९/१) में इसका उत्तरार्ध इस प्रकार है तत्तो य धम्मसीहे, सुमित्ते तह धम्ममित्ते य। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001927
Book TitleAgam 40 Mool 01 Aavashyak Sutra Part 01
Original Sutra AuthorBhadrabahuswami
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2001
Total Pages592
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, & agam_aavashyak
File Size11 MB
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